आत्म-दर्शनः अपार की ओर हो दृष्टि
वैकालिक सत्ता को हमने आज तक देखा ही नहीं, इसीलिए अनन्त के धनी आज तक बने ही नहीं। आज हम अपने भौतिक सुख में वृद्धि करना चाह रहे हैं, हम सुख की गुणवत्ता को नहीं बढ़ाना चाहते, बल्कि सुख का परिमाण बढ़ाना चाह रहे हैं, यही भूल है।
Published: June 12, 2022 04:43:20 pm
आचार्य विद्या सागर नदी शिखर से निकलती है, पर्वत-कन्दराओं में बहती हुई मिट्टी में से, पत्थर में से होती हुई आती है। उसका लक्ष्य एक ही है सागर में मिल जाना। तभी उसकी उपयोगिता है। स्वयं को मिटाकर उसकी दृष्टि अपार की ओर रहती है। तभी वह समुद्र में अनन्त सुख की भागिनी बन जाती है। हम भगवान के सामने जाकर भी अपने अहं को सुरक्षित रखने की चेष्टा करते हैं। अपार समुद्र के सामने नदी की कोई कीमत नहीं है। भगवान के पूर्ण ज्ञान के सामने हम अपने अपूर्ण ज्ञान को लेकर दंभ करते हैं। हमने भगवान के सामने कभी अपनी आलोचना की ही नहीं। वैकालिक सत्ता को हमने आज तक देखा ही नहीं, इसीलिए अनन्त के धनी आज तक बने ही नहीं। आज हम अपने भौतिक सुख में वृद्धि करना चाह रहे हैं और इसके लिए क्या-क्या जतन नहीं करते। हम सुख की गुणवत्ता को नहीं बढ़ाना चाहते, बल्कि सुख का परिमाण बढ़ाना चाह रहे हैं, यही भूल है। कुछ मिट जाए, कोई परवाह नहीं। वर्तमान पर्याय भले ही मिट जाए तो क्या बात है? वर्तमान को सुरक्षित रखना ही गलती है। उस सत्ता का दर्शन करो, उस छवि को, महिमा को सामने लाओ। वर्तमान की लहर अमृत की लहर नहीं, जहर की लहर है। जब हम निश्चल, निडर, निर्भीक हो जाएं, तब ज्यादा समय नहीं लगता। संसार को बढ़ाने के लिए युग आपेक्षित है, पर विच्छेद के लिए युग की जरूरत है ही नहीं। असंख्यातवें भाग बराबर भी सत्ता का अवलोकन हो जाए तो बस ज्योति जग जाएगी।

प्रतीकात्मक चित्र
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