धार्मिक आयोजनों के कारण भी कोरोना वायरस फैलने का खतरा लगातार बना हुआ है। हरिद्वार में शुरू हुआ कुंभ भी ऐसा ही आयोजन है। विडंबना यह कि राज्य सरकार के मुखिया मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत ने कोरोना गाइडलाइन को दूर रखने का प्रयास किया। इससे न सिर्फ कुंभ मेले में, बल्कि पूरे राज्य में संक्रमण तेजी से बढ़ा। नागा साधु तक इसकी चपेट में आए। स्वयं मुख्यमंत्री रावत भी पॉजिटिव हो गए। बाद में हाईकोर्ट ने सख्त रुख अपनाते हुए कुंभ के लिए केंद्र की एसओपी का पालन करवाने के आदेश दिए। केंद्र की एसओपी में कुंभ में आने वाले लोगों के लिए कोरोना की नेगटिव रिपोर्ट अनिवार्य की गई थी। इसके बाद सख्ती दिखाई गई और बिना नेगटिव आरटी-पीसीआर टेस्ट के कुंभ में जाना वर्जित कर दिया गया। विडंबना यह कि केंद्र की सख्ती द्वारका पीठ के शंकराचार्य को नागवार गुजरी और उन्होंने चुनावी सभाओं पर तंज भी किया कि ‘ऐसा लगता है कि चुनावी राज्यों में वायरस खत्म हो गया है और अब वह चुनाव के बाद ही प्रकट होगा।’ इससे एक कदम आगे जाकर असम के प्रभावशाली नेता हिमंत बिस्व सरमा ने तो साफ-साफ कह भी दिया कि असम में कोरोना संक्रमण का खतरा नहीं है।
यह क्यों नहीं समझा जा रहा कि कोरोना की दूसरी लहर ज्यादा संक्रामक है? पिछले साल नई दिल्ली में तबलीगी जमात की भीड़ पर काफी हाय-तौबा मची थी, लेकिन हमने उससे क्या सीखा? हम यह कैसे भूल सकते हैं कि यदि एक बार फिर लॉकडाउन की नौबत आई और उद्योग-धंधे बंद करने पड़े, तो इसका सबसे ज्यादा असर गरीब और मध्यम वर्ग पर ही पड़ेगा। जनप्रतिनिधियों पर जनता को शिक्षित करने का भी दायित्व होता है। हमारे जनप्रतिनिधियों का रवैया देखकर ऐसा नहीं लगता कि उन्हें अपने दायित्व का बोध है। जो मंत्री-नेता चुनावी राज्यों में खुद बिना मास्क के मजमा लगाते दिखे हैं, चुनाव के बाद यदि वे ही जनता से मास्क लगाने की अपील करेंगे, तो क्या उसका असर होगा?