हमारे राजनेता और राजनीतिक दलों ने शायद तय कर रखा है कि- हम नहीं सुधरेंगे। मामला चाहे जम्मू-कश्मीर का हो या पाकिस्तान का, भूमि अधिग्रहण बिल का हो या ओलावृष्टि का, वे हर मुद्दे पर राजनीतिक गोटियां फिट करने लगते हैं। कैसे उस मुद्दे का फायदा अपनी पार्टी के हित में उठाया जाए, उनका सारा सोच-विचार इसी के इर्द-गिर्द होता है। इस कसरत में वे मुद्दे की गंभीरता को भी भूल कर एक-दूसरे को नीचा दिखाने में लग जाते हैं।ताजा मामला “आप” की दिल्ली रैली में बुधवार को किसान गजेन्द्र सिंह की आत्महत्या का है। होना तो यह चाहिए था कि संसद सत्र के चलते आज सारा कामकाज रोककर सभी राजनीतिक दल इस बात पर चिंतन-मनन करते कि फिर कोई और गजेन्द्र आत्महत्या को मजबूर नहीं हो। लेकिन हुआ वही जो हमेशा होता है। किसान की मौत से जैसे कोई लेना-देना ही नहीं। न कहीं उसके परिवार की चिंता नजर आई। कोई पूछे कि, आखिर इस कसरत का किसान के लिए, देश की जनता के लिए क्या फायदा हुआ तो शायद किसी दल और नेता के पास कोई जवाब नहीं हो। और यह हंगामा भी शायद इसलिए कि हादसा दिल्ली में हुआ। वर्ना देश भर में आए दिन गजेन्द्र जैसे दर्जनों किसान आत्महत्या कर रहे हैं, उनकी बात कोई नहीं करता। निर्भया प्रकरण दिल्ली में हुआ तो हंगामा हुआ। कानून बने लेकिन उतने ही वीभत्स मामले देश के विभिन्न हिस्सों में रोज हो रहे हैं, दिल्ली में मीडिया का कोई हिस्सा उनकी चर्चा करता नहीं दिखता। और संसद के बाहर का सीन तो और भी दर्दनाक है। “आप” के नेता हर मंच से दिल्ली की पुलिस के अपने कब्जे में नहीं होने का राग अलापते रहे। मानो दिल्ली की पुलिस उनके कब्जे में होती तो गजेन्द्र की आत्महत्या नहीं होती। उसके एक भी नेता ने इस सवाल का जवाब नहीं दिया कि आखिर हजारों कार्यकर्ता और तमाम नेताओं के देखते-देखते यह हादसा हो कैसे गया? हद तो उसके नेता आशुतोष के इस बयान में है कि आगे कभी ऎसा हादसा हुआ तो मैं दिल्ली के मुख्यमंत्री से कहूंगा कि वे पेड़ पर चढ़कर उसे बचाएं। यह बानगी है उस ह्वदय परिवर्तन की जो सत्ता मिलने पर होता है। और केन्द्र सरकार, वो और भी आगे निकली।वहां उपस्थित अज्ञात भीड़ पर किसान को आत्महत्या के लिए प्रेरित करने का मामला तो उसने पुलिस से दर्ज करवा दिया लेकिन उस पुलिस पर कुछ नहीं किया जिसकी नजरों के सामने हादसा हुआ पुलिस को बचाकर केन्द्र ने भी आप पर ही हमला बोला है। आखिर इस सबका अर्थ क्या है? इसमें जुड़ाव कहां है? कहां गया आम आदमी से हमारे दिल का और दर्द का रिश्ता? सभी पैंतरेबाजी में उलझे लगते हैं। ज्यादा हो तो मुआवजा देकर मौत के सौदागर जैसा व्यवहार। लानत है, ऎसी राजनीति पर।