दरअसल तथ्यों की जांच का तो बहाना है, चीन नहीं चाहता कि दक्षिण एशिया में भारत का दबदबा बढ़े। इसलिए भारतीय हितों को सुरक्षित करने वाले हर मौके पर वह भारत के दुश्मनों की तरफदारी करने के रास्ते खोज लेता है। दुश्मन के दुश्मन को दोस्त समझने की पुरानी नीति को कारगर मानने का सिलसिला समय और देश के अनुसार बदस्तूर जारी है। ऐसा करते समय राजनीति यह भूल जाती है कि गलत का बचाव करने वाला भी कभी उसकी जद में आ सकता है। अमरीका और तालिबान से बेहतर इसे कौन समझ सकता है। चीन जितनी जल्दी यह समझ सके, उसके लिए भी बेहतर होगा। चीन का वरदहस्त हासिल होने के कारण ही पाकिस्तान की हरकतें भी बेखौफ होती जा रही हैं। आशंकाओं के अनुरूप ही आतंक भड़काने में पाकिस्तान अपनी सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल कर रहा है। अब तक हम यह मानते थे कि अपनी सीमा में रहकर पाकिस्तान आतंकियों को हर तरह की मदद दे रहा है।
चौंकाने वाली बात यह है कि भारतीय एजेंसियों एनआइए और ईडी के हाथ लगे सबूतों से पता चलता है कि दिल्ली स्थित पाकिस्तानी उच्चायोग ने आतंकियों तक धन पहुंचाने का रास्ता बनाया था। जांच एजेंसियों को किसी अंतिम नतीजे तक पहुंचने में भले ही समय लगे, लेकिन उच्चायोग की कार्यप्रणाली को लेकर जो शंका जताई जा रही है, उसके बाद भी इसका यहां खुला रहना अचंभित करने वाला है। दूतावास दो देशों के बीच संबंध बेहतर करने के लिए होते हैं न कि बिगाडऩे के लिए। इससे ज्यादा अचंभित करने वाला सवाल यह है द्ग हमारा सुरक्षातंत्र इतना कमजोर कैसे रह सकता है कि दुश्मनों के मंसूबों के अंजाम तक पहुंचने के बाद ही हरकत में आता है? पुलवामा हो या उरी, हमलों के बाद ही एजेंसियां क्यों जागती हैं। अब भले ही सुरक्षा एजेंसियों ने यह पता लगा लिया हो कि उच्चायोग से आतंकियों को मदद मिलती रही है, उसके खिलाफ कार्रवाई के अतिरिक्त, तंत्र की खामियों पर नए सिरे से विचार करने की भी आवश्यकता है।