संविधान न तो लुटियन दिल्ली का उत्पाद है और न ही उसका विशेष अधिकार क्षेत्र, बल्कि यह सभी के लिए प्रदर्शक है। वर्तमान पीढ़ी पर न केवल संवैधानिक मूल्यों को बनाए रखने का महत्त्वपूर्ण दायित्व है, बल्कि इसके केंद्रीय चरित्र को बनाए रखते हुए इसे अगली पीढ़ी तक उत्तरोत्तर स्थानांतरित करने की भी जिम्मेदारी है। अगस्त 1962 में तत्त्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन ने जोधपुर विश्वविद्यालय का उद्घाटन करते समय कहा था- ‘मुझे भरोसा है कि इस विश्वविद्यालय में शिक्षित युवा अतीत के कैदियों के रूप में नहीं, बल्कि भविष्य के तीर्थयात्रियों के रूप में आगे बढ़ेंगे।’ इन शब्दों में एनएलयू, दिल्ली जैसे विश्वविद्यालयों की भूमिका और इसके सिंहद्वार से निकलने वाले भाग्यशाली विद्यार्थियों के बारे में महान ज्ञान निहित है। चालीस वर्ष पहले बार काउंसिल ऑफ इंडिया के जर्नल में प्रो. उपेन्द्र बख्शी ने लिखा था-हमारी कानूनी शिक्षा प्रणाली को ‘सामाजिक रूप से प्रासंगिक कानूनी शिक्षा की दिशा’ में तैयार किया जाना चाहिए।
प्रशासक और शिक्षाविद् श्रीनिवास शास्त्री ने आदर्श नागरिकता के तीन बुनियादी सिद्धांत बताए थे। समुदाय के व्यापक हितों में अपने निजी हितों को छोडऩे की इच्छा; व्यावहारिक सामान्य ज्ञान; यह समझने की क्षमता कि वे कौन से तत्व हैं जो समाज कल्याण में योगदान करते हैं। मुझे लगता है कि बार के सदस्य रचनात्मक नागरिक और आदर्श नागरिक दोनों बनने के लिए सबसे उपयुक्त हैं। नागरिकता के रूप में, समाज में रचनात्मक योगदान स्थानीय और राष्ट्रीय स्तर पर भाईचारा लाता है। भारत की सही दिशा में प्रगति तभी सुनिश्चित की जा सकती है जब नागरिक ठोस नींव के साथ संरचना के निर्माण में अपनी उचित भूमिका निभाएं।
किसी भी लोकतांत्रिक समाज की स्वतंत्रता और स्वास्थ्य उसके नागरिकों द्वारा कत्र्तव्यों के सक्रिय निर्वहन पर निर्भर करता है। समुदाय का एक स्वतंत्र सदस्य होना न केवल एक विशेषाधिकार है बल्कि एक जिम्मेदारी भी है। विश्वास की कमी वाला समाज अपने अधिकांश कानूनी अधिकारों को लागू करने में सक्षम नहीं हो सकता है। कानूनी पेशे में आज महिलाओं का प्रतिनिधित्व कम है। भारत के उच्च न्यायालयों में 788 न्यायाधीश हैं, जिसमें केवल 107 महिला न्यायाधीश हैं यानी केवल 13 प्रतिशत। नामांकित वकीलों में महिलाओं का आंकड़ा महज 15 फीसदी है। कानूनी फर्मों की स्थिति भी बेहतर नहीं है, यहां महिलाओं की संख्या केवल 27 फीसदी है। 2022 की एक रिपोर्ट के अनुसार 35 से 55 वर्ष के बीच की उम्र वाली 60 फीसदी महिलाएं उस समय अपनी प्रैक्टिस छोड़ देती हैं, जो उनके करियर का चरम समय होता है।
82 फीसदी महिलाएं कामकाजी जीवन में संतुलन न बैठा पाने के कारण इस प्रोफेशन को छोडऩे के लिए मजबूर होती हैं। राज्य बार काउंसिल के प्रतिनिधियों में केवल 2.04 फीसदी ही महिलाएं हैं और बार काउंसिल ऑफ इंडिया में कोई भी महिला प्रतिनिधि नहीं है। ये सिर्फ आंकड़े भर नहीं हैं बल्कि हमारी कानूनी प्रणाली के भीतर छूटे अवसरों, आवाजों को अनसुना कर देने और खोए हुए अपने दृष्टिकोणों का प्रतिनिधित्व करते हैं। निरर्थक और जानबूझकर मौज-मस्ती के लिए पेश की गई याचिकाएं अदालतों को ‘अन्य’ के विशेष शासन में बदल देती हैं और इससे केवल लंबित मामलों का ढेर लग जाता है। आपको अपने मुवक्किल के लिए किराए का बंदूकधारी या रबर स्टाम्प नहीं बनना चाहिए।
जिस दिन वकील वकील संवैधानिक तरीकों को अनिवार्य मानने के बजाय ऐच्छिक के रूप में देखेंगे, उस दिन कानून में जनता का विश्वास टूट जाएगा। नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी के छात्रों पर यह दिखाने की जिम्मेदारी है कि उनके कार्य कानूनी ढांचे से बंधे हुए और नैतिकता का मानक लिए हों। रचनात्मक नागरिकों के रूप में आपकी जिम्मेदारी है कि आप ज्यादा महिलाओं को बिना किसी डर या झिझक के पेशे में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए स्थान प्रदान करें। प्रिय स्नातकों, आपको एक बार फिर से बधाई। आप सदैव अपने ज्ञान और नैतिकता के प्रकाश से न्याय के मार्ग को रोशन करते रहें। (नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, दिल्ली में दिए गए दीक्षान्त भाषण के सम्पादित अंश)
-जस्टिस बी.वी. नागरत्ना, सुप्रीम कोर्ट