पहले साल में देश में कोरोना से लगभग दो लाख मौतें हुई थीं। अगर ऊपर के आंकड़े में से यह निकाल लें तो भी 35 लाख मौतों का भारी भरकम आंकड़ा बचता है, जो अन्य बीमारियों में समय पर इलाज न मिलने से हुई मौतों का है। इस आंकड़े को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए, फिर भले ही देश कोरोना की महामारी से उबर चुका है। कोरोना की चौथी लहर या किसी अन्य वायरस की आशंका हो, किसी महामारी का खतरा हो या न भी हो, यह देश के कर्ता-धर्ताओं का नैतिक दायित्व है कि वे देश के चिकित्सा तंत्र को इस कदर दुरुस्त रखें कि किसी भी व्यक्ति की मृत्यु इलाज के अभाव में न हो। ताजा आंकड़ा बताता है कि दुर्भाग्य से देश में अभी ऐसी आदर्श स्थिति नहीं है। साल 2020 का आंकड़ा सर्वाधिक है, लेकिन लाखों की संख्या में इन्हीं कारणों से लोगों की जान हर साल जाती रही है। पिछले साल तो बॉम्बे हाईकोर्ट में भी एक मामला पहुंचा था, जिसमें महाराष्ट्र में बिना इलाज के मौतों पर चिंता जताई गई थी। चिकित्सा संस्थानों की कमी, चिकित्सकों व उपकरणों का बड़ी संख्या में अभाव इसके प्रमुख कारण हैं, जिनके बारे में सरकार को ठोस कदम उठाने ही होंगे। एक बड़ा कारण यह भी है कि निजी चिकित्सालयों में वित्तीय दृष्टिकोण बहुत हावी है। यह सत्य है कि हर कंपनी कारोबारी नजरिए से ही कोई कारोबार संचालित करती है, पर स्वास्थ्य क्षेत्र को पूर्ण व्यावसायिक दृष्टि से नहीं देखा जा सकता। यह मानवता के खिलाफ है। निजी क्षेत्र यहां धनार्जन जरूर करें, लेकिन एक दायरे में जिसमें उनके वाजिब व्यावसायिक हित सध जाएं और इलाज सामान्य से सामान्य मरीजों की हद में आ जाए।
केन्द्र सरकार को राज्यों से तालमेल बढ़ाने की जरूरत भी है। हैरत इस बात की है कि कोरोना काल में सबसे ज्यादा मौतों वाले राज्य महाराष्ट्र का आंकड़ा ही इस रिपोर्ट में शामिल नहीं है। पिछले साल केंद्र ऑक्सीजन के अभाव से मरने वाले लोगों का आंकड़ा ही नहीं जुटा पाया। मोटे तौर पर किसी समस्या से लडऩे और उसे हराने के लिए उसकी स्पष्ट तस्वीर तो होनी चाहिए।