scriptछलावों से घिरी अंग्रेजी | Ploys from the walled English | Patrika News

छलावों से घिरी अंग्रेजी

Published: Jan 16, 2015 12:12:00 pm

Submitted by:

Super Admin

भारत में, आम जनता को भाषा आधारित दीवार द्वारा राष्ट्र के विकास में भागीदारी से दूर रखा गय…

भारत में, आम जनता को भाषा आधारित दीवार द्वारा राष्ट्र के विकास में भागीदारी से दूर रखा गया है। हमारे देश में भाषा के आधार पर “रंगभेद” के एक अनोखे रूप का अनजाने में ही पालन किया जा रहा है।

शेखर स्वामी, ग्रुप सीईओ, आरके स्वामी हंस एवं अतिथि प्रोफेसर, नॉर्थ वेस्टर्न यूनिवर्सिटी, अमरीका

मंगलवार के कॉलम में, यह बात सिद्ध हो गई थी कि लोग अंग्रेजी के बदले अपनी खुद की भाषा को बहुत ज्यादा प्राथमिकता देते हैं। उनके द्वारा पढ़े जाने वाले अखबारों और देखे जाने वाले टेलीविजन कार्यक्रमों की भाषा इस बात का सबूत देती है। फिर भी भारत के नेताओं ने स्वतंत्रता के समय से शासन, व्यापार, कानून और देश के सभी महत्वपूर्ण मामलों में बहुत ही व्यवस्थित तरीके से अंग्रेजी भाषा को कायम रखा। कई मायनो में अंग्रेजी पवित्र “गौमाता” है। कोई भी व्यक्ति जो इसके प्रभुत्व पर सवाल उठाता है, उसे विकास विरोधी और पिछड़ा घोषित कर दिया जाता है। ऎेसे तीन प्रमुख मिथक या भ्रम हैं जो अंग्रेजी के समर्थक बनाए रखते हैं। मगर ये तीनों भ्रम छोटे से छोटे परीक्षणों पर भी खरे नहीं उतर पाते हैं।

मिथक 1
स्तरीय शिक्षा के लिए अंग्रेजी की जरूरत
तर्क दिया जाता है कि आज के जमाने की सभी स्तर की शिक्षा और वैज्ञानिक प्रगति मुख्यत: अंग्रेजी में है। इसलिए भारत को अपना कामकाज मुख्य रूप से अंग्रेजी में करने की जरूरत है। यदि ऎसा होता तो विश्व भर में सभी चोटी के देश भी ऎसा ही कर रहे होते। मगर हम जानते हैं कि ऎसा नहीं है। विज्ञान और आधुनिकीकरण के क्षेत्र में सफलता के बारे में जापान और जर्मनी (और दर्जनों अन्य राष्ट्र) को लेकर कोई संदेह नहीं किया जा सकता और ये देश अपना कामकाज मुख्य रूप से अपनी भाषा में करते हैं। शिक्षा मुख्य रूप से लोगों की मूल भाषा में है और सभी वैज्ञानिक जानकारियां उनकी अपनी भाषा में आसानी से उपलब्ध हैं। इन देशों ने अपनी सम्बंधित भाषाओं में विज्ञान में जो प्रगति की है, उस पर और उनके योगदान पर सवाल नहीं उठाया जा सकता। अनुभवों से यही पता चलता है कि प्रगति के लिए अंग्रेजी पहली आवश्यकता नहीं है।

मिथक 2
सार्वभौमिक विश्व के लिए अंग्रेजी जरूरी
लोग तर्क देते हैं कि अगर सार्वभौमिक विश्व में भाग लेना है और उससे लाभ उठाना है तो भारत के लिए अंग्रेजी मुख्य भाषा के रूप में जरूरी है। जब अंतरराष्ट्रीय मामलों की बात हो तो ये सही है, मगर वो राष्ट्र की गतिविधियों का सिर्फ एक छोटा-सा भाग है। यह उन अप्रवासी भारतीयों के लिए भी सही है जो इस भूमि को छोड़ गए हैं और सवा अरब की जनसंख्या के राष्ट्र में वे कुछ लाख ही हैं।

ये कहना कि सार्वभौमिक विश्व में अंग्रेजी भाषा ही एक मात्र रास्ता है, ज्यादा अर्थ नहीं रखता। विश्व के मुख्य निर्यातक राष्ट्रों पर एक नजर डालें तो पता चलता है कि इन देशों के दस में से आठ देश कामकाज अंग्रेजी में नहीं करते हैं। वे वह करते हैं जो वे सदियों से करते आ रहे हैं। मतलब वे कामकाज अपनी सम्बंधित भाषाओं में ही करते हैं और अपार रूप से सफल हैं और उनका विश्वमंच पर आदर किया जाता है।

मिथक 3
आईटी जगत में अंग्रेजी
भारत सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) जगत में अपनी सफलता का जश्न मनाता है। हम अक्सर सुनते हैं कि यह सब अंग्रेजी के प्रभुत्व के कारण ही हुआ है। हालांकि अंग्रेजी बोलने वाले लोगों का एक समूह होना फायदेमंद रहा है, लेकिन यह निष्कर्ष निकालना कि अंग्रेजी भारत की आईटी सफलता के लिए समाज में प्रमुख भाषा होनी चाहिए, बहुत बड़ा भ्रामक है। विश्व की प्रमुख आईट कंपनियों में से एक सेमसंग इलेक्ट्रॉनिक्स का मामला लेते हैं।

यह कंपनी दक्षिण कोरिया की है जिसमें कोरियन भाषा का प्रभुत्व है। सन् 1969 में स्थापित सेमसंग ने सन् 2012 में 189 बिलियन डॉलर की विश्वव्यापी बिक्री दर्ज की, जो दो प्रौद्योगिकी महारथियों—आईबीएम (बिक्री 105 बिलियन डॉलर) और माइक्रोसॉफ्ट (78 बिलियन डॉलर) की मिलाकर हुई बिक्री से भी अधिक है।

ये आंकड़े उस सिद्धांत को बेबुनियाद ठहरा देते हैं कि आईटी में वैश्विक सफलता के लिए अंग्रेजी को ही प्रमुख भाषा होनी चाहिए। सफलता के लिए जरूरी है स्पष्ट इरादा, जो लगातार क्रियान्वयन की सहायता से शक्तिशाली योजनाओं में बदला जाता है (वही जिसे भारतीय आईटी जगत ने किया है), ना कि अंग्रेजी भाषा ने। लोगों की सहज भाषा में यह सब करना एक अड़चन नहीं होगा बल्कि सिर्फ लाभकारी ही हो सकता है।

अंग्रेजी की असली कीमत
भारत में अंग्रेजी को किस तरह से थोपा गया, उसका इतिहास सभी को मालूम है। यह कोई छिपी हुई बात नहीं है। एक छोटा सा ब्रिटिश समूह (सन् 1900 में जिनकी संख्या लगभग 1,30,000 थी) 30 करोड़ से ज्यादा भारतीयों पर राज करता था। भारतीयों के एक छोटे से समूह को अंग्रेजी में इसलिए प्रशिक्षित किया गया ताकि वे ब्रिटिश राज के संचालन में मदद कर सकें और लोगों के साथ बिचौलिये की भूमिका निभा सकें। अंग्रेजों का इसमें स्वार्थ निहित था। ब्रिटिश राज के जमाने में अंग्रेजी विशेष अधिकारों वाली बेहतर जिंदगी का टिकट बन गई। स्वतंत्रता के बाद, राष्ट्रीय भाषा के रूप में हिन्दी को लागू करने का विरोध अहिन्दी भाषी राज्यों द्वारा किया गया। अंग्रेजी को एक कड़ी भाषा के रूप में उचित ठहराया गया और व्यापार व कानून और शासन की भाषा के रूप में रखा गया।

भाषा आधारित दीवार के द्वारा राष्ट्र के विकास में भागीदारी से आम जनता को दूर रखा गया जिसका देश पर गहरा नकारात्मक प्रभाव पड़ा। परिणामस्वरूप शायद मानव पूंजी का सबसे बड़ा अल्प उपयोग हुआ। जहां सहभागिता, लोकतांत्रिकता और सभी को मिलाकर चलने की जरूरत थी, वहां अंग्रेजी को महत्व देने से राष्ट्र विशिष्ट और विशिष्ट वर्ग समर्थकों का धरोहर बन गया है।

यह कहना गलत नहीं होगा कि भाषा के आधार पर रंगभेद का एक अनोखा रूप अनजाने में ही देश में व्यवहार में आ गया है। विशिष्ट विद्यालय और महाविद्यालय इस प्रथा को बनाए रखते हैं। भारत एक विरला देश है जहां देशीय भाषाओं को “बोलचाल की भाषा” के रूप में वर्गीकृत किया जाता है (कल्पना करिए कि जापानी और जर्मन भाषा को अगर “बोलचाल की भाषा” कहा जाए!), जबकि उचित तो यह होता कि अंग्रेजी को “विदेशी” भाषा में वर्गीकृत किया जाता।

यह तर्क पेश किया जाता है कि किसी को किसी बात से वंचित नहीं किया जाता है, आम जनता को अंग्रेजी भाषा सीखनी चाहिए और आर्थिक मुख्य धारा में जुड़ना चाहिए। ये तर्क सिर्फ उन लोगों की तरफ से आता है जो अंग्रेजी में प्रवीण हैं। भाषा के मामले में भारत को जापानी/जर्मन/ कोरियन प्रतिमान का अनुकरण करना चाहिए। इन देशों में जनता अपनी भाषा में कुछ भी और सब कुछ सीख सकती है और विदेशी भाषा सीखना कभी भी जरूरी नहीं रहा। इसका परिणाम यह रहा कि उनके देश की पूरी जनसंख्या की सामूहिक शक्ति आर्थिक प्रगति के काम में लाई गई है।

भारत की तुलना में इन राष्ट्रों का आत्मविश्वास भी ऊंचा है और हम हमेशा पश्चिम की तरफ देखते रहते हैं। अगर हमारे लोगों को अंग्रेजी नहीं आती तो उन्हें छोटा महसूस कराते रहने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती है।

आज राजनीतिक पार्टियां सकल विकास की बात करती हैं। अगर वे इस बारे में गंभीर हैं तो उन्हें राष्ट्र की कार्यसूची में भाषा को भी शामिल कर लेना चाहिए। यद्यपि अंग्रेजी को भी वैकल्पिक रूप में बनाए रखा जा सकता है। ऎसे मापदंड बनाए जाने चाहिए जिससे हर भारतीय अपनी भाषा को जानने के आधार पर प्रगति के पथ पर अग्रसर हो सके और वह अपनी ही भूमि पर खुद को विदेशी न महसूस करे।

aअगर लोग निर्बाध रूप से अपनी भाषा में सीख सकें, प्रगति कर सकें और विकास के विविध क्रियाकलापों में भाग ले सकें तो विकास की एक लहर आ सकती है। भाषा के मुद्दे पर नए सिरे से सोचना बहुत बड़े रूप में फायदेमंद हो सकता है। क्या कोई राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टी इस अवसर को देख पा रही है?

ट्रेंडिंग वीडियो