पहली बात 1977 की है। इंदिरा गांधी का आपातकाल खत्म हुआ था और दिल्ली में जनता राज आया था। सभी, सब तरफ उन सबकी बातें करते थे जो उस अंधेरे दौर में, अंधेरे की पक्षधरता करते रहे थे। ऐसी ही काली भूमिका भारतीय प्रेस के एक हिस्से की भी थी।
लालकृष्ण आडवाणी ने, जो जनता पार्टी की सरकार में सूचना व प्रसारण मंत्री बने थे, प्रेस के उस हिस्से की आपातकाल के दौर की दयनीय, कायर भूमिका के बारे में एक गजब की बात कही – ‘उनसे कहा तो गया था कि झुको लेकिन वे घुटनों के बल रेंगने लगे।’ उस दौर में प्रेस के उस एक हिस्से की भूमिका पर इससे अच्छा और मौजूं कुछ कहा ही नहीं जा सकता था। आज के आईने में फिर से अधिकांश मीडिया वैसा ही कायर और भयभीत दिखाई दे रहा है।
दूसरी बात अभी की है। कभी इलाहाबाद में प्रोफेसर रह चुके भाजपा के वरिष्ठतम नेता (और संभवत: इस सरकार के मार्गदर्शक मंडल के सदस्य) मुरली मनोहर जोशी से किसी ने पूछा कि अगर आप परीक्षक हों तो इस सरकार को कितने नंबर देंगे? जोशीजी बोले – अरे, परीक्षा की कॉपी में कुछ लिखा हो तब तो नंबर देने की बात आती है। कोरी कॉपी हो तो कोई कितने नंबर दे और कितने काटे? सच, नरेंद्र मोदी सरकार के चार सालों की इससे बेहतर समीक्षा नहीं हो सकती है।
चार सालों में जिस सरकार ने परीक्षा की अपनी कॉपी का हर पन्ना भर रखा हो और फिर भी वह कोरा ही दिखाई दे, तो आप उस सरकार की अनदेखी नहीं कर सकते। मुझे लगता है कि जैसे यह सच है कि नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के लिए गुजरात से दिल्ली की तरफ जैसी दौड़ लगाई वैसी दौड़ आज तक दूसरे किसी ने कभी नहीं लगाई, उसी तरह यह भी सच है कि प्रधानमंत्री बनने के बाद से आज तक नरेंद्र मोदी कभी चैन से बैठे नहीं। उनकी दौड़ जारी है। बस, दिक्कत यह है कि वे दौड़ नहीं रहे हैं, कदमताल कर रहे हैं। कदमताल में आप अपनी ही जगह पर खड़े रह कर इस तरह पांव चलाते हैं कि दूर से वह दौडऩे का भ्रम पैदा करता है। इसलिए भाजपा के काडर को लगता है कि उनके प्रधानमंत्री दौड़ रहे हैं।
कदमताल करने से जो शोर बनता है और जो धूल उड़ती है उसे विकास मान कर, मोदीजी के सारे मंत्रीगण देश को यह समझाने व भरमाने में लगे रहते हैं कि देखो, विकास आ गया है, कि देखो, विकास हो रहा है, कि पहचानो विकास बड़ा हो रहा है। लेकिन कदमताल का सच यह है कि इसमें आपको चलना नहीं, अपनी जगह पर खड़े होकर बस पांव उठाना-गिराना होता है। आप चले नहीं कि कदमताल टूटा। यही हो रहा है। देश पिछले चार सालों से एक ही जगह पर, रोज-रोज का यह अनवरत कदमताल देख रहा है।
मुझे लगता है कि प्रधानमंत्री ने इन चार सालों में दो ऐसे कीर्तिमान बनाए हैं, जिनका मुकाबला कोई नहीं कर सकता है। पहले दिन से आज तक इतनी योजनाएं-परियोजनाएं घोषित हुई हैं, इतने ‘ऐप’ बने और लांच हुए हैं, जिनकी गिनती के लिए एक नए मंत्रालय की जरूरत होगी। उनका दूसरा कीर्तिमान लगातार विदेश जाने या विदेशी मेहमानों का अपने यहां स्वागत करने का है। पहले को कहा गया गवर्नेंस या विकास, दूसरे को कहा गया विदेश-नीति या भारत को विश्वगुरु बनाना।
अगर धुआंधार भाषणों से गरीबों का पेट भर सकता तो सच, देश में कोई भूखा नहीं रह जाता। अगर योजनाओं-परियोजनाओं, ‘ऐप’ आदि से गरीबों की किस्मत बदली जा सकती तो इंदिरा गांधी का गरीबी हटाओ का नारा सिद्ध हो गया होता। अगर नोटबंदी से कालाबाजारी और
जीएसटी से व्यापार में चोरी रोकी जा सकती तो देश साफ व स्वस्थ हो चुका होता।
विदेश जाने और विदेशियों को यहां बुलाने, गले लगने-लगाने, झूला झूलने या झुलाने से देश की विदेश-नीति बन सकती और मजबूत हो सकती तो दुनिया में हमारी तूती बोलती होती। नेहरू परिवार को चीख-चीख कर कोसने से देश की किसी बीमारी का हल निकल सकता तो हम कहते कि चलो, इससे तो निजात मिली। लेकिन सच तो यह है कि इस तरह न देश बनते हैं और न चलते हैं। इसलिए न देश बन रहा है और न चल रहा है।
देश में आपसी टकराहट बढ़ती जा रही है। लोकतंत्र को संभालने वाली संस्थाएं खुद को ही संभाल नहीं पा रही हैं। प्रधानमंत्री को छोड़ कर, मंत्रिमंडल का स्वास्थ्य चिंताजनक हद तक खराब है। मंत्रिमंडल में योग्यता, प्रतिभा और कुशलता की सिरे से कमी नजर आती है। विदेश नीति जैसी कोई
चीज बनी भी नहीं है, बची भी नहीं है। रूस, चीन और अमरीका का त्रिभुज हमें किसी संतुलनकारी
शक्ति की तरह नहीं, प्यादे की तरह देखता व बरतता है। चार साल का यह हाल है, तो प्रोफेसर जोशी कहें भी तो क्या कहें?