भारतीय राजनीति की यह स्थापित परम्परा है कि राष्ट्रपति हो या राज्यपाल, लोकसभा के अध्यक्ष हों या विधानसभाओं के अध्यक्ष, वे अधिकांशत: आते राजनीति से ही हैं, लेकिन जैसे ही इनमें से किसी भी पद पर बैठते हैं, अपने आप को सक्रिय राजनीति से पूरी तरह अलग कर लेते हैं। कई उदाहरण तो ऐसे भी हैं, जिनमें ऐसे पदों पर बैठने के बाद संबंधित ने पार्टी छोडऩे का ऐलान किया। जिन्होंने ऐसे ऐलान नहीं भी किए, वे भी कभी पार्टी की बैठकों में नहीं गए। सोमनाथ चटर्जी ने तो लोकसभा अध्यक्ष रहते ऐसे ही मामलों में पार्टी की पूरी तरह अनदेखी की। असल में ये सारे पद ऐसे हैं, जिन पर देश और समाज को दिशा देने का जिम्मा है। आमतौर पर इन पदों पर बैठने वाले राजनीति, प्रशासन, समाज और सेना के ऐसे प्रतिष्ठित लोग होते हैं जिनके बारे में यह माना जाता है कि उन्होंने वहां अपनी पारी पूरी खेल ली। ऐसे लोग वापस राजनीति में कम ही जाते हैं।
अपवाद हर जगह होते हैं। अर्जुन सिंह, हरिदेव जोशी और जगन्नाथ पहाडिय़ा जैसे उदाहरण हमारे सामने हैं, जिन्होंने राज्यपाल पद छोडऩे के बाद भी सक्रिय राजनीति में भाग लिया। के. राजशेखरन तो केरल के तिरुअनंतपुरम से चुनाव लडऩे के लिए हाल ही मिजोरम के राज्यपाल पद से इस्तीफा देकर आए ही हैं। लेकिन ऐसे अवसरों को समाज ने सराहा भी नहीं और उनकी दूसरी पारी को ज्यादा सफलता भी नहीं मिली। अच्छा हो कल्याण सिंह जी कुछ ऐसा करें और कहें, जिससे स्थापित परम्पराओं से हटकर की गई उनकी यह टिप्पणी भविष्य के राज्यपालों के लिए नजीर बने और वे सब पद पर बैठने के बाद पार्टी नहीं, देश और समाज के बनकर रहें।