क्या पुलिस ऐसी ही धाराओं के अन्य आरोपितों के साथ ऐसा ही सुलूक करती है? मोदी सरकार का तो नारा ही ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का था। क्या सब दिखावा था? क्यों उन्नाव और कठुआ के आरोपितों को बचाने के लिए सत्तारूढ़ दल के नेता आगे आए? क्या इन पर भी अपराधियों को बचाने की धाराओं में मुकदमे दर्ज कराने की हिम्मत सरकार दिखाएगी? विपक्ष का रवैया भी ऐसा नहीं दिखा कि वह महिलाओं व मासूम बालिकाओं के उत्पीडऩ के खिलाफ गंभीर है। न उन्नाव में और न ही कठुआ में।
घटना के एक हफ्ते बाद जब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सरकार से सवाल किए, तब कांग्रेस को लगा कि मुद्दे को सियासी रंग दिया जा सकता है। आनन-फानन में कैंडल मार्च का निर्णय हो गया। आधी रात में इण्डिया गेट पर नेताओं की गंभीरता कम, टीवी कैमरों में दिखाई पडऩे की होड़ ज्यादा दिखी। एक सप्ताह से दोनों जगह कांग्रेस, सपा, बसपा समेत वामपंथी दल क्यों निष्क्रिय थे? क्या तब उन्हें मामले की गंभीरता का भान नहीं था? निर्भया मामले के बाद यौन उत्पीडऩ के खिलाफ सख्त कानून लाया गया।
विभिन्न राज्यों में मासूमों के बलात्कारियों को मौत की सजा का प्रावधान हुआ। लेकिन कितनों को सजा हुई? जबकि इन सालों में महिला उत्पीडऩ व दुष्कर्म के मामले बढ़े हैं। सिर्फ कानून बनाने या घटना होने पर सियासत करने से काम नहीं चलेगा। सभी दलों को निहित स्वार्थों से ऊपर उठकर जागृति अभियान चलाना होगा। राजनीति से अपराधियों, दुष्कर्मियों, बाहुबलियों और भ्रष्टाचारियों का सफाया नहीं होगा, तो कानून-व्यवस्था सुधरने की उम्मीद बेमानी है। आमजन भी बेदाग छवि वालों को ही वोट देने की ठान ले। बदलाव आपके हाथ में है। समय आ गया है सिस्टम में चेंज का। अभी नहीं तो फिर कभी नहीं।