शिवसेना से राजनीति शुरू करने वाले राणे पार्टी छोडऩे के बाद कांग्रेस में रह चुके हैं। कांग्रेस में रहते हुए राणे भाजपा पर जमकर प्रहार करते थे। वहीं कांगे्रस से अपनी राजनीति शुरू करने वाले अग्रवाल समाजवादी पार्टी समेत अन्य दलों में रह चुके हैं। सप्ताह भर पहले तक भाजपा की नीतियों की धज्जियां उड़ाने से नहीं थकने वाले अग्रवाल को शामिल करके भाजपा क्या संदेश देना चाहती है। महत्वपूर्ण बात ये कि समाजवादी पार्टी ने उन्हें राज्यसभा का टिकट नहीं दिया तो तीन दिन के भीतर वे पार्टी छोडक़र भगवा रंग में रंग गए।
यहां सवाल दो नेताओं के भाजपा में शामिल होने व इससे भाजपा को लाभ का नहीं है। सवाल अहम ये है कि भाजपा ऐसा कर क्यों रही है? क्या उसे लगता है कि राणे और अग्रवाल मन से भाजपाई हो गए होंगे? सवाल का जवाब ना में है जिसे भाजपा के नेता भी जानते हैं और राणे-अग्रवाल भी। पिछले कुछ सालों में देश की राजनीति में ‘आयाराम-गयाराम’ का चलन बेतहाशा बढ़ गया है। चुनाव की आहट हो या नहीं, दलबदल का सिलसिला सालभर जारी रहने लगा है।
दलबदल ने राजनीति को दूषित बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। भाजपा में शामिल होने का इनाम राणे को तो राज्यसभा सीट के रूप में मिल गया है। अग्रवाल को भी कोई पद मिल सकता है। लेकिन फिर मोदी के ‘कांग्रेस कल्चर’ वाले बयान का क्या होगा? इसका फैसला तो भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को ही करना होगा। दूसरे दलों के अनेक नेता पहले भी भाजपा में आ चुके हैं लेकिन कभी घुल-मिल नहीं पाए। राणे और अग्रवाल कितनी देर तक टिक पाते हैं, समय ही बताएगा।