यह डर हो भी कैसे? अगर सीमा से बाहर जाकर, राजनीतिक मर्यादा को तार-तार करने वाली बयानबाजी पर किसी पार्टी अथवा प्रशासन ने कोई कार्रवाई की हो तो डर लगे? यहां तो पार्टी नेतृत्व की तमाम चेतावनियों को दरकिनार करके सांसद और विधायक ही नहीं, सरकारों में बैठे मंत्री भी भडक़ाऊ बयान देते हैं। ऐसे में जब चेतावनी देने वाला नेतृत्व चुप बैठा रहता है, तब लगता है कि कहीं सबकी मिलीभगत तो नहीं है? हद तब हो जाती है, जब ऐसी बयानबाजी दूसरे देशों पर होने लगती है।
भारतीय लोकतंत्र के ७१ वर्षों की यह मोटी-मोटी परम्परा है कि विदेशी सम्बन्धों को लेकर जो बोलती है, केन्द्र सरकार ही बोलती है। विपक्षी नेता या दल तभी बोलते हैं जब कोई बड़ा मुद्दा सामने आए। लेकिन इन वर्षों में यह परम्परा टूटती सी लग रही है। इन बयानवीरों को इस बात से कोई सरोकार नहीं होता कि उनकी अनर्गल बयानबाजी का दोनों देशों के सम्बन्धों पर क्या फर्क पड़ेगा?
ऐसा ही ताजा मामला सांसद सुब्रह्मण्यम स्वामी का है। वे कोलम्बो में मालदीव के पूर्व राष्ट्रपति मौ. नशीद से मिले। चुनावी धांधलियों की आशंका पर बात हुई और उन्होंने तुरन्त ट्वीट कर दिया कि ‘अगर धांधली होती है तो भारत को मालदीव पर हमला कर देना चाहिए।’ स्वामी नौसिखिए राजनेता नहीं हैं। अस्सी वर्ष की उनकी उम्र है। लगभग ४५ वर्षों से संसदीय राजनीति में हैं। केन्द्र में मंत्री और जनता पार्टी के अध्यक्ष रहे हैं। जानते हैं कि उनके बोल का क्या असर होगा, फिर भी बोल गए।
नतीजे में भारतीय उच्चायुक्त को मालदीव से तीखे शब्द सुनने पड़े। भारतीय विदेश मंत्रालय को यह स्पष्टीकरण जारी करना पड़ा कि स्वामी ने जो कहा, वह उनकी अपनी राय है। क्या देश के तमाम राजनेताओं को ‘फटे में पांव’ देने से दूर नहीं रहना चाहिए? ज्यादा परेशानी हो रही हो, तब देश के प्रधानमंत्री अथवा विदेश मंत्री को बता दो। वे मानें या न मानें, उनकी मर्जी लेकिन बंद कमरे की बातों को सार्वजनिक मंचों पर करके अपनी और देश की छीछालेदर कराने का क्या फायदा?
मालदीव कभी हमारा अच्छा मित्र रहा है। जब अब्दुल गयूम वहां के राष्ट्रपति थे तब उनके आग्रह पर भारत ने वहां सेना भेजी थी। प्रश्न यह है कि चुनाव मालदीव में हो या भारत में, देश के आंतरिक मसले हैं। कल को हमारे चुनावों में धांधलियों के विपक्षी आरोपों को लेकर अमरीका, रूस या कोई अन्य देश के नेता भारत पर हमले की सलाह अपनी सरकार को दे तब हमारी प्रतिक्रिया क्या होगी? हमारे राजनेताओं को इसे समझना चाहिए। खासतौर पर स्वामी जैसे वरिष्ठ नेताओं को, जिनकी प्रतिक्रियाओं के मायने हैं द्ग देश के लिए भी और विदेश के लिए भी। उससे विदेशी सम्बन्ध सुधरें तो अच्छा, लेकिन दोस्त भी दुश्मन बन जाए तो क्या फायदा?