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राजनीतिक बोल

लगता है जैसे हिन्दुस्तान में राजनीति के अलावा और कुछ नहीं होता। नेता तो नेता अब तो नौकरश्…

Jan 16, 2015 / 12:12 pm

Super Admin

लगता है जैसे हिन्दुस्तान में राजनीति के अलावा और कुछ नहीं होता। नेता तो नेता अब तो नौकरशाह और न्यायाधीश भी राजनीति की भाषा बोलने लगे हैं।

ताजा उदाहरण उत्तरप्रदेश के प्रमुख गृह सचिव अनिल गुप्ता का है। मुजफ्फरनगर दंगा पीडितों के लिए चल रहे राहत शिविरों में 40 से अधिक मासूम बच्चों की सर्दी से मौत के सवाल पर उन्होंने सरकार की ओर से जो सफाई दी है, वह तो शायद उनके अपने बच्चों के गले भी नहीं उतरेगी।

गुप्ता ने कहा— “सर्दी से कोई नहीं मरता। यदि सर्दी से कोई मरता होता तो साईबेरिया में कोई जिंदा नहीं बचता। बच्चों की मौत निमोनिया से हुई होगी।” गुप्ता को क्या दोष दें। वे तो वही बोलेंगे जो उनके राजनीतिक आका बोलेंगे। और सपा प्रमुख मुलायम सिंह के चार दिन पुराने इन मधुर वचनों को भी देश अभी नहीं भूला है कि— “इन राहत शिविरों में कोई दंगापीडित नहीं है। सारे के सारे कांग्रेस और भाजपा के कार्यकर्ता हैं।”

ये दोनों तो उदाहरण हैं, आज केन्द्र और राज्य सभी जगह एक-सा हाल है। जो मुख्यमंत्री-मंत्री बोलते हैं, अफसर उसी पटरी पर चलने लग जाते हैं। बेशक निमोनिया माहौल से, अस्पताल से और वेंटीलेटर से, कई कारणों से हो सकता है, लेकिन आम बोल-बाल की भाषा में सर्दी ही उसका बड़ा कारण है। लेकिन अहंकारी नेता और अफसरों को कौन समझाए?

समझने की बात यह है कि अगर सर्दी से राहत शिविरों में कोई नहीं मरा तो शर्म से देश में कोई नहीं मर रहा। चुल्लू भर पानी में डूब मरने की कहावत तो जैसे अब व्यक्ति के मानवाधिकारों के हनन की बात होकर पाठ्यक्रमों से ही बाहर हो गई है। जब व्यक्ति उन्हें पढ़ेगा ही नहीं तो फिर व्यवहार में कैसे लाएगा? राजनेता, राजनीति करें समझ में आता है, लेकिन नौकरशाह भी राजनीति करें, राजनीतिज्ञों की भाषा बोलें और उनका आचरण भी वैसा ही हो जाए, कम से कम लोकतंत्र तो इसकी इजाजत नहीं देता।

सारे नौकरशाह ऎसे होते जा रहे हैं, यह कहना गलत है। टी.एन. शेषन से लेकर दुर्गाशक्ति नागपाल तक कुछ अफसर हैं, जो वाकई अपनी रीढ़ की हड्डी के सहारे खड़े हैं, लेकिन ज्यादातर मलाईदार पोस्टिंग या सेवानिवृत्ति के बाद संविदा नियुक्ति की चिंता में रहते हैं, जो राजनेताओं की बैसाखियों से ही मिलती है।

इसीलिए फिर वे जेल से निकलने वाले नेताओं तक के जूते उठाते हैं या पैर धुलाते हैं। अफसोस है कि सेवानिवृत्ति बाद के रोजगार की चिंता, न्यायाधीशों में भी बढ़ने लगी हैं। संविधान ने कार्यपालिका, व्यवस्थापिका और न्यायपालिका को अलग-अलग जिम्मेदारियां सौंपी हैं और उचित यही है कि वे अलग-अलग ही रहें। यदि उन्होंने भी आपस में, अपने स्वार्थो के लिए गठजोड़ कर लिया तो वह नापाक तो होगा ही, देश के लिए भी नुकसानदेह होगा।

नौकरशाह भी राजनीतिज्ञों की भाषा बोलें और उनका आचरण भी वैसा ही हो जाए, लोकतंत्र तो इसकी इजाजत नहीं देता।

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