असमानताओं को समझने में एक महत्त्वपूर्ण साल 1971 रहा। इस वर्ष ब्रिटिश फिजिशियन जूलियन टूडोर हार्ट ने ‘प्रतिलोम देखभाल सिद्धान्त’ बताया और कहा कि मध्यम और निम्न आय देशों में स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता लोगों की आवश्यकताओं से ठीक उलट होती है। फिर वर्ष 2000 के आस-पास नए सबूत सामने आए कि लोगों की सेहत महज स्वास्थ्य सेवाओं पर ही नहीं, बल्कि इस बात पर भी निर्भर करती है कि लोग किन परिस्थितियों में जन्म लेते हंै, बड़े होते हैं और रहते हैं। इन्हें ‘स्वास्थ्य के सामाजिक निर्धारक’ कहते हैं। ये हैं-निवास की जगह (ग्रामीण, शहरी व अन्य), प्रजाति एवं जाति, व्यवसाय, लिंग, धर्म, शिक्षा स्तर, सामाजिक-आर्थिक स्तर आदि। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार स्वास्थ्य के सामाजिक निर्धारक स्वस्थ रहने में दो तिहाई तक भूमिका निभाते हैं।
कोविड-19 महामारी ने स्वास्थ्य असमानता की तरफ फिर से ध्यान आकर्षित किया है। हमें इस अवसर का इस्तेमाल स्वास्थ्य असमानताओं को दूर करने के लिए करना चाहिए। भारत में एचआइवी या एड्स उन्मूलन कार्यक्रम से मिली सीख स्वास्थ्य असमानता कम करने में मददगार साबित हो सकती है। इसमें सामुदायिक भागीदारी और लक्षित मध्यस्थता जैसे उपाय अपनाए गए थे। यहां ‘गांधीजी का ताबीज’ काम आ सकता है। स्वास्थ्य नीति निर्माताओं और कार्यक्रम प्रबंधकों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि समाज के सबसे गरीब और कमजोर व्यक्ति तक स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध हो। जब सरकार स्वास्थ्य सेवाओं में निवेश करती है और प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा सुविधाओं को सुचारु करती है, तो स्वास्थ्य असमानता कम हो जाती है। पिछले दशकों में कई देश स्वास्थ्य सेवाओं की असमानता दूर करने में सफल हुए हैं। उन्होंने यह लक्ष्य सार्वभौमिक स्वास्थ्य नीति लागू करके और स्वास्थ्य तंत्र को मजबूत करके हासिल किया है। भारत भी यह कर सकता है, जरूरत है तो सिर्फ राजनीतिक इच्छाशक्ति की। साथ ही इसके लिए केंद्र और राज्य सरकारों की ओर से मजबूत पहल की।
(लेखक सार्वजनिक स्वास्थ्य, टीकाकरण और स्वास्थ्य तंत्र विशेषज्ञ हैं)