पिछले वर्षों में भारतीय लोकतंत्र आक्रामकता के इस दौर से गुजर रहा है, जहां बड़ी मछली बूढ़ी होकर कमजोर पड़ गई है। न वह आक्रमण कर सकती है, जैसे श्रीमती इन्दिरा गांधी करती थी, न ही नई युवा मछलियों के आक्रमण को झेल ही सकती है। हालात ऐसे हो गए कि बड़ी मछली का कुनबा सिमट गया है और समुद्र में कई प्रकार की रंग-बिरंगी मछलियां पैदा हो गई। वैसे इनके अस्तित्व का आधार भी बड़ी मछली ही है। ये अपने-अपने तालाब से बाहर नहीं आ सकतीं। अत: बड़ी मछली के सामने मुक्त युद्धस्थल है। मगरमच्छ नजर आती है। हमारा लोकतंत्र आज यहां खड़ा है।
क्या बूढ़ा हो जाना पाप है? नहीं। किन्तु बुढ़ापे को स्वीकार न करना, स्वयं को देश से अधिक महत्वपूर्ण मान लेना पाप है। तब एक-एक करके सब साथ छोड़ जाते हैं। बुद्धि भी साथ छोड़ जाती है। यहां तो कहावत है-‘विनाश काले विपरीत बुद्धि।’ गांधी परिवार को आज तक यह बात समझ में नहीं आई कि वह इतने बड़े देश के लोकतंत्र के प्रति उत्तरदायी है। यह काम मिट्टी के घर बनाकर बिखेर देने जैसा नहीं है कि ‘म्है ही खेल्यां, म्है ही बिझाण्या।’ आज कांग्रेस में यही हो रहा है। भाजपा को प्रयास ही नहीं करने पड़ेंगे, कांग्रेस को समेटने के लिए। स्वयं गांधी परिवार ही समर्थ है। कांग्रेस से सिपहसालार स्वयं दलाल बनने लगे हैं। विरोधी दल की सहायता कर रहे हैं। बिना कुछ प्रयास किए भाजपा और मोदी सरकार की प्रशंसा सवाई होती जा रही है। धन्यवाद, कांग्रेस! धन्यवाद, गांधी परिवार!!
आज लोकतंत्र खतरे में है। जब तक कांग्रेस का नेतृत्व नहीं बदलेगा, देश को सशक्त विपक्ष देने लायक नहीं होगा, लोकतंत्र अपने स्वाभाविक स्वरूप में नहीं लौटेगा। राजनीति की रस्सा-कसी ने कई बार उठापटक के दौर पैदा किए, कितने लुभावने कानूनों को जन्म दिया, जो देशहित को पूरा नहीं कर पाए। आज जहां विदेशों में लॉकडाउन जैसे मुद्दों पर लाखों लोग सडक़ पर आ जाते हैं, हमारे यहां विपक्ष है ही नहीं। कांग्रेस मात्र शासकीय दल है, संघर्ष इसकी शैली में नहीं है। तब जनता के लिए संघर्ष कौन करेगा? इसके बिना राजनीति में रहने का अर्थ क्या है?
राजस्थान कांग्रेस में जो कुछ पिछले महीनों में हुआ, क्या आलाकमान शर्मसार महसूस करेगा, स्वयं को। यह सारा संघर्ष दो पीढिय़ों के बीच का था। अनुभव और महत्वाकांक्षा के बीच था। घर की लड़ाई का प्रभाव जब जनता पर पड़े, पार्टी को कष्ट भी न हो, क्षमा याचना भी नहीं? जनता मर रही थी कोरोना से, काम बन्द थे, भ्रष्टाचार चरम पर, माफिया और अफसर राज, टिड्डी दल या अपराधी, किसी को परवाह नहीं। बाड़ेबंदी और मौजां ही मौजां! यही सरकारों का लक्ष्य रह गया। कुर्सी बचाओ। जनता ने जिता दिया, फिर भी असुरक्षित? क्या हक है राजनीति में रहने का? बातें सब स्वाभिमान की करते हैं, सम्मान की करते हैं। कैसा स्वाभिमान? क्या करते रहे जनता के लिए। लूटा ही है। विपक्ष जैसे-जैसे कमजोर होगा, सत्तापक्ष लूटेगा।
जब-जब भाजपा का शासन आया, प्रदेश कांग्रेस ने भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज नहीं उठाई, कोई आन्दोलन नहीं किया। अब इन मुद्दों पर सरकार चुप है। रामगढ़ बांध भरने की उतनी चिन्ता नहीं है, जितनी विपक्षी नेता को व्यक्तिगत लाभ पहुंचाने की। यह लोकतंत्र की समझ है अथवा मिलीभगत की कुश्तियां? वर्तमान संकट के पीछे भी दृष्टिकोण की संकीर्णता ही रही है। जातिवाद-क्षेत्रवाद के अलावा भी कांग्रेस ने सत्ता में व्यक्तिवाद को गहरा ही किया है। गहलोत स्वयं कहते हैं कि मैं गांधी परिवार का ऋणी रहूंगा।
संकट टला नहीं है। कांग्रेस सक्षम नहीं है। जो बात आज हुई पहले क्यों नहीं मानी गई, जो समिति आज बनी-पहले क्यों नहीं बन पाई? क्या भीतर की फूट ने सत्ता को एकतरफा आगे बढऩे दिया? क्या कांग्रेस को समझ है कि यह भीतर के झगड़े लोकतंत्र की नाव में छेद कर देते हैं। क्या कांग्रेस नहीं समझती कि एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकतीं? बहुमत सिद्ध करने का समय आ गया है। सारा समझौता अभी अस्थायी दिखाई पड़ रहा है। अभी तो विधानसभा अध्यक्ष, बागी विधायकों का रुख, बसपा के विलय का फैसला जैसे मुद्दे पर्दे के पीछे हैं।
हां, गहलोत जी की योजना ने प्रदेश की सरकार हाथ से नहीं जाने दी। प्रश्न यह भी है कि कांग्रेस के पास कितने ‘गहलोत’ हैं? क्या गांधी परिवार थरूर, सिब्बल जैसे अपने स्वच्छन्दतावादियों के वक्तव्यों की भाषा नहीं पढ़ पाता? सब हवा के साथ हैं। लोकतंत्र के प्रति अपने उत्तरदायित्व का बोध लुप्त हो रहा है। हर घटना के परिणामों को अब कांग्रेस के परिपेक्ष्य में ही देखा जाता है, जबकि राष्ट्रीय परिपेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। जनता को गांधी परिवार की नहीं, लोकतंत्र की चिन्ता है। आज तो इस नाव में छेद ही छेद हो चुके हैं।