इसका एक और उदाहरण अमरीकी सील द्वारा उसामा बिन लादेन के ठिकाने पर हेलिकॉप्टर से किया गया हमला था। जून 2006 में अमरीका ने एक एफ-16सी विमान से 500एलबी के दो निर्देशित बम इराक के दियाला प्रांत में बकूबा के करीब स्थित हिबिब गांव के एक सेफहाउस पर सटीक गुप्तचर सूचना के आधार पर गिराए थे जिसमें अबू मुसाब-अल-जरकावी मारा गया था। इसी तरह अगस्त 2009 में सीआइए के ड्रोन द्वारा प्रक्षेपित इकलौती हेलफायर मिसाइल, जिसमें तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान के 5000 मजबूत लड़ाकों का सरदार बैतुल्ला मसूद मारा गया। क्लासिकल सर्जिकल हमले के ये ऐसे उदाहरण रहे, जिनमें शत्रु के नेतृत्व को खत्म कर के उसकी ताकत को नैतिक रूप से कमजोर कर दिया गया।
सर्जिकल हमले बड़े पैमाने पर भी किए जाते हैं। पहले खाड़ी युद्ध के शुरुआती चरण में बगदाद पर की गई बमबारी जिसे ऑपरेशन ‘शॉक एंड ऑ’ का नाम दिया गया था, वह बाथ सरकार को कमजोर करने के लिए उसके दफ्तरों और सैन्य व संचार प्रतिष्ठानों पर किए गए सिलसिलेवार सर्जिकल हमलों का एक संयोजित उदाहरण है। उसका लक्ष्य विशिष्ट था और उसे इसमें कामयाबी भी मिली। दूसरी ओर ड्रेस्डेन पर की गई कारपेट बमबारी, जिसने उस ऐतिहासिक शहर को आग की लपटों में झोंक दिया, सर्जिकल हमला नहीं था।
एक कामयाब सर्जिकल हमले का प्रभाव विनाशकारी होता है। इस लिहाज से उड़ी हमले के बाद जो कुछ भी हुआ, वह सर्जिकल कहे जाने लायक नहीं है। इसके बजाय पाकिस्तान समर्थित आतंकियों ने ठीक तीन दिन बाद बारामूला में पलटवार कर दिया। पाकिस्तानी फौज ने भी कई जगहों पर गोलीबारी की। आज भी पाकिस्तानी पंजाब के जकीउर्रहमान लखवी और सैयद सलाउद्दीन (बडगाम, कश्मीर के सोइबग के मोहम्मद यूसुफ शाह) अपनी कई बेगमों के साथ हर रात चैन की नींद ले रहे हैं। वे अब भी प्रेस कांफ्रेंस कर रहे हैं। उन्हें किसी एक जगह एक ही वक्त में दबोच लेना उतना भी मुश्किल नहीं है।
मैंने हमेशा पाकिस्तान में आतंकी नेतृत्व के ठिकानों पर सीधा हमला करने की पैरवी की है ताकि उनकी गतिविधियों की लागत बढ़ जाए। जरूरी नहीं कि ऐसा करने के लिए हमें सरहद पार अपने सैनिकों को भेजना पड़े। भारतीय वायुसेना और नौसेना के पास सटीक मार करने वाली मिसाइलें मौजूद हैं। इस बात में कोई शक नहीं कि भारतीय फौज ने एलओसी के पार अपने लोग भेजे थे और ऐसी कई जगहों पर हमला किया, जहां उनके आतंकी मौजूद थे। इससे पहले भी कई बार ऐसा किया जा चुका है लेकिन इसका जश्न नहीं मनाया गया। वास्तव में ऐसा करने का फैसला कोर स्तर पर लिया गया था। यह सरकारी नीति थी। इसमें भी कोई शक नहीं कि उन्होंने भी खून बहाया होगा और किसी को बंधक नहीं बनाया होगा, जैसा कि पिछले कई साल से होता आ रहा है। किसी नाम का गलत इस्तेमाल कर के अपनी कार्रवाई को अतिरंजित और भव्य दिखाना महज राजनीतिक छल है।
यदि हमारे लोग उस पार से सलाउद्दीन को बाहर निकाल लाते या साथ ले आते, तब उसे सर्जिकल हमला बेशक कहा जा सकता था। अगर राम माधव ने उस वक्त उसे सर्जिकल हमला और मोदी सरकार की बड़ी उपलब्धि कहा होता, तो हम सब बेशक उसकी सराहना करते। सवाल उठता है कि डीजीएमओ ने उसे ऐसा क्यों बताया जबकि वह सर्जिकल नहीं था। यह बात मुझे समझ नहीं आती। डीजीएमओ प्रतिष्ठित सैनिक होते हैं और भाषणों में काफी सटीक रहते हैं। एक डीजीएमओ को ऐसा ही होना भी चाहिए। मुझे कोई संदेह नहीं कि मौजूदा डीजीएमओ भी उसी विरासत से आते हैं, लेकिन कभी-कभार इन्हें तय पटकथा से बाहर जाकर भी काम लेना होता है। जो हुआ, उसे सर्जिकल कहा जाना स्पष्टत: राजनीतिक है। सीमापार छापे की कुछेक कार्रवाइयां कैसे सर्जिकल हमला करार दी जा सकती हैं, इसकी कहानी अब भी सामने आना बाकी है।
मोहन गुरुस्वामी
नीति विश्लेषक