अक्सर आधिकारिक स्तर पर ऐसे मसलों में लीपापोती पर ही ध्यान दिया जाता है। कई वर्षों से ऐसा ही होता आया है। सीएनजी व अन्य साफ ईंधन का प्रयोग, पुराने वाहनों को सडक़ों पर चलने की अनुमति न देना, वाहनों के लिए यूरो मापदंड तय करना, ऑड और इवन नंबर प्लेट वाले वाहन, पावर स्टेशनों के लिए सख्त मापदंड आदि उपाय कारगर तो हैं, पर इनसे केवल कुछ समय के लिए ही राहत मिलती है।
पारिस्थितिकीय संकट का हल तभी संभव है जब इसके कारणों को जड़ से पहचाना जाए, जैसे कौन किसे फायदा पहुंचाने के लिए निर्णय ले रहा है। इसके अलावा सबकी भलाई और विकास के लिए कौन-से मॉडल अपनाए जा रहे हैं आदि। कई दशकों से भारतीय राजनेता, प्रशासनिक अधिकारी और उद्योगपतियों ने विकास का ऐसा स्वरूप लोगों के सामने रखा है, जिसका आशय केवल आर्थिक विकास है, जिसके चलते न्यायसंगतता के सारे पहलू बिसरा दिए गए हैं।
अप्रत्याशित लाभ कमाने की अभिलाषा और चुनावी प्रतिस्पर्धा के जरिए सत्ता पाने की होड़ इसका बड़ा कारण है। यही विरोधाभास है कि पिछले 25 सालों से विश्व में सर्वाधिक विकास दर के संदर्भ में औसतन दूसरे स्थान पर रहने वाले देश में भुखमरी, कुपोषण, असमानता, ***** भेद, जातिवाद और पारिस्थितिकी के ह्रास जैसी समस्याएं आज भी मौजूद हैं। विकास का सबसे भयावह परिणाम वायु प्रदूषण के रूप में सामने आया है। सर्वाधिक क्षति इसी वजह से हुई है।
उपरोक्त समस्याओं का सार्थक समाधान क्या हो सकता है, यह जानने के लिए हमें ‘एअरपोकैलिप्स’ (ग्रीनपीस, इंडिया द्वारा प्रयुक्त शब्द) के हर कारण पर विचार करना होगा। कोयले के स्थान पर हमें बिजली के गैर-पारंपरिक स्रोत अपनाने होंगे जो सामाजिक व पारिस्थितकीय पहलुओं को शामिल करते हुए कोयले से विद्युत उत्पादन की तुलना में सस्ते साबित होते हैं। इस संबंध में और ऊर्जा उपभोग के विषय पर व्यापक स्तर पर संवाद का महत्त्व भी समझना होगा।
दूसरा प्रमुख कारण है सडक़ों पर वाहनों की अत्यधिक भीड़। वैश्वीकरण के बाद लगता है जैसे ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने सारे संसाधन लगा दिए। जहां कभी पैदल यात्री या साइकल सवार ही नजर आते थे, वहां रातों रात सडक़ें, फ्लाईओवर और पार्किंग स्थल बन गए। ऐसे में साफ ईंधन के इस्तेमाल का उपाय खास असरदार नहीं लगता। दिल्ली में सीएनजी का प्रयोग इसका उदाहरण है। इसी तरह निर्माण सामग्री की बारीक धूल भी प्रदूषण का बड़ा स्रोत है।
अन्य मूलभूत समस्या है बड़े पैमाने पर हो रहा पलायन। इसके लिए व्यापक नए आधारभूत ढांचे की जरूरत है। यदि गांवों में स्थानीय स्तर पर अर्थव्यवस्था सुधारने और सामाजिक विषमता दूर करने की नीति अपनाई जाए, वर्तमान में शहरों पर केंद्रित निवेश का रुख बदला जाए और स्वास्थ्य, शिक्षा व संचार जैसी मूलभूत सुविधाएं मुहैया कराई जाएं तो पलायन की प्रवृत्ति को रोका जा सकता है।
इसके अलावा फसल अवशिष्ट भी बड़ी समस्या है, खास तौर पर उत्तर भारत में। हरित क्रांति के मॉडल से जुड़े घटकों – पर्यावरणीय क्षति, खेती की बढ़ती लागत और बाजार में उचित मूल्य न मिल पाना – ने किसानों की मुश्किल बढ़ाई है। जरूरत है कि किसान जैविक व विविध प्रकार की फसलें उगाएं, उन्हें फसल का उचित मूल्य मिले और ग्राम-आधारित कृषि प्रसंस्करण व सीधे उपभोक्ताओं को कृषि उत्पाद बेचने की व्यवस्था सुदृढ़ हो।
अंतत: तीन बिंदु काफी महत्वपूर्ण हैं। उपरोक्त उपायों में से कुछ भी संभव नहीं है जब तक निर्णय लेने का अधिकार सरकार और उद्यमियों के पास निहित है। लोकतंत्र की परंपराओं को जीवित रखते हुए हमें उन निर्णयों में भागीदारी करनी ही होगी जो हमारे शहर और पड़ोस को प्रभावित करते हों। दूसरा, वायु प्रदूषण से सर्वाधिक प्रभावित होने वाले वर्ग यानी गरीब तबके को प्राथमिकता देना जरूरी है। तीसरा, हमें अपनी वैश्विक विचारधारा भी बदलने की जरूरत है।
अधिकांश ‘पढ़े-लिखे’ लोग यह मान बैठे हैं कि जिंदगी भौतिकवाद के चारों ओर घूमती है और इसी कारण जीवन की बहुत सी आधारभूत चीजों से दूर होते जा रहे हैं, जैसे हवा, पानी, सुकून भरे पल, प्रकृति और अपनों का साथ। साफ हवा और पानी को, जिनके बिना जीवन संभव नहीं है, प्रदूषित किया जाना एक तरह का सामूहिक पागलपन कहा जा सकता है। यदि हम आने वाली पीढिय़ों को शिक्षित करने का तरीका बदलें, तो संभव है कि इस उन्माद से छुटकारा पा लें। हमें अपने भीतर झांकना होगा और तलाशना होगा दायित्व, प्रेम और मूल्यों को। हम में से हर एक ऐसा करने में सक्षम है। याद रखना होगा कि सिर्फ साफ ईंधन जैसे प्रयासों से बात बनने वाली नहीं है।