देर से ही सही लेकिन इस बार लगता है पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ दुरस्त आए हैं। शरीफ ने अपने मंत्रियों को भारत के खिलाफ नहीं बोलने की नसीहत देकर यह जताने की कोशिश तो की है कि वे सम्बन्धों को सुधारने के इच्छुक हैं। शरीफ का ये समझना कि गड़े मुर्दे उखाड़ने से बात बनने वाली नहीं, समझदारी भरी शुरुआत समझी जा सकती है। ऐसा नहीं कि ऐसी समझदारी शरीफ ने ही दिखाई हो। पाकिस्तान के पूर्व सैन्य शासक रहे परवेज मुशर्रफ ने भी एकाध बार ऐसे संकेत दिए थेे मानो वे बदल रहे हों। लेकिन बाद में नतीजा सकारात्मक नहीं निकल सका।
दोनों देशों के सम्बन्धों को सामान्य बनाना है तो पाकिस्तान ही क्यों, भारत के राजनेताओं को भी ऐसे बयान देने से बचना चाहिए, जिनसे रिश्तों में कड़वाहट पैदा होती हो। पिछले दिनों भारतीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने पाकिस्तान यात्रा के दौरान शरीफ से मुलाकात कर बातचीत को जारी रखने के संकेत दिए थे।
सुषमा ने अगले साल भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की पाकिस्तान यात्रा के भी संकेत दिए थे। दोनों देश ‘बीती ताहि बिसारिए, आगे की सुध लेयÓ की कहावत को चरितार्थ करते हुए आगे बढ़ने की कोशिश करें तो कोई मुश्किल नहीं कि रिश्तों पर जमी बर्फ ना पिघले। यह मानने में भी संकोच नहीं होना चाहिए कि दोनों देश दोस्त नहीं बन सकते लेकिन दुश्मनी को तो खत्म कर ही सकते हैं। पाकिस्तान की पूर्व विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार के उस बयान को भी नजरदांज नहीं किया जा सकता जिसमें उन्होंने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री को काम करने की आजादी नहीं होने की मजबूरी का इजहार किया था। पूरी दुनिया जानती है कि पाकिस्तानी सेना किस तरह देश की अंदरूनी राजनीति में दखल देती है। सेना के साथ-साथ पाकिस्तान में मौजूद आतंककारी संगठन और विश्व की मजबूत हथियार लॉबी भी दोनों देशों के सम्बन्धों को दोस्ताना नहीं होने देना चाहती।
पाकिस्तान को भारत के साथ रिश्तों में मिठास लानी है तो उसे सेना और आतंककारी संगठनों के हस्तक्षेप को दरकिनार करना होगा। लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकारों को सिर्फ जनता के हितों पर ध्यान देना चाहिए न कि सैन्य हितों की तरफ। जो काम इतने सालों में नहीं हुआ, वह आगे भी नहीं होगा, ये सोचकर बातचीत के दरवाजे बंद करना मूर्खता ही मानी जाएगी। लम्बे समय बाद बातचीत का शुरू होना शुभ संकेत माना जा सकता है।
दोनों देशों की सोच सकारात्मक रही तो कोई कारण नहीं कि गाड़ी फिर पटरी पर ना आ सके। सीमा विवाद सुलझने में समय लगता है तो लगता रहे लेकिन उसकी आड़ में व्यापारिक, सांस्कृतिक और खेल सम्बन्धों को समाप्त नहीं कर देना चाहिए। ये सम्बन्ध दोनों देशों की जनता को नजदीक लाएंगे और यही नजदीकी सीमा विवाद का हल निकालने में भी सहायक साबित हो सकती है।