इसे रोकने के सरकार एवं विभिन्न संगठनों के एक दशक के गंभीर प्रयासों के सकारात्मक परिणाम आए हैं। 18 वर्ष से कम उम्र की बालिकाओं के विवाह के मामले में 2005-06 से 2015-16 की अवधि में 20.6 फीसदी की कमी आई है।
पुरुषों के 21 वर्ष से कम विवाह के मामले जो 2005-06 में 32.3 फीसदी थे, वे घटकर 2015-16 में 11.9 फीसदी रह गए हैं। हालांकि राजस्थान, बिहार और मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में उल्लेखनीय सुधार दिखे हैं पर इन राज्यों में कम उम्र में विवाह की समस्या दूर करने के लिए कड़े कदम उठाने होंगे।
कम उम्र में विवाह की वजह से जल्द ही बच्चे का जन्म का भारतीय समाज में हमेशा से चलन रहा है। कम उम्र में मां बनने के पीछे कुछ खास सामाजिक वजह आज भी मौजूद हैं जैसे कि स्त्रियों के लिए मां बनने की योग्यता सिद्ध करना जरूरी, गर्भ निरोध के उपायों की जानकारी नहीं होना और स्त्रियों को जन्म देने के संबंध में निर्णय लेने का अधिकार नहीं होना।
एनएचएफएस-4 की रिपोर्ट में 15-19 वर्ष की में कम उम्र में मां बनने के मामलों में 8.1 फीसदी की कमी आई है। कम उम्र में विवाह और जल्द ही मां बनने के आंकड़ों में कमी बेशक उत्साहजनक हैं पर इस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि आज भी 100 में 27 लड़कियों का कम उम्र में विवाह कर दिया जाता है जो चिंता का विषय है।
वास्तविकता यह है कि इन मसलों का बहुत जल्द हल नहीं हो सकता है। इसके लिए विभिन्न समुदायों के साथ मिल कर काम करने और रीति-रिवाजों में बदलाव की मुहिम छेडऩी होगी। इसकी एक ठोस रणनीति बननी चाहिए।
हमें सामाजिक-आर्थिक मानसिकता को बदलना होगा जिसके तहत अजन्मे शिशु का लिंग चयन, कम उम्र में विवाह, जल्द ही और बार-बार मां बनने की स्थिति, लड़कियों का कमजोर पोषण, घरेलू हिंसा और बेटी-बहू को बराबरी का हक नहीं देने की सोच कायम है। और, इस सोच को बदलने के लिए आवश्यक है सामाजिक एवं व्यावहारिक परिवर्तन।
बगैर परिवर्तन के इस स्थिति में बदलाव ला पाना संभव नहीं होगा। इसलिए आज जरूरी है कि हम एनएचएफएस-4, 2015-16 के आंकड़ों को बारीकी देखें और यह जानने का बेहतर प्रयास करें कि आज भी किन कारणों से ड्रॉप आउट से लेकर जागरूकता और क्रियान्वयन की प्रतिबद्धता कम है।