लेकिन कोई एक या एकाधिक कडिय़ां टूट जाएं, तब क्या होगा? तब शासन पसंदीदा कॉरपोरेट को लाभ पहुंचाने लगेगा, क्योंकि वहीं से चुनाव में होने वाले खर्च में मदद मिलती है। कॉरपोरेट वाले बैंक से कर्ज लेकर धन वापस नहीं करेंगे। और सत्ताधारी बैंकों को कह देंगे कि वे दस्तावेजों से कर्जधारक उद्यमी का नाम हटा दें। उसके एवज में कुछ रकम शासन बैंकों को देगा। बैंक रुपए का अवमूल्यन करने लगेंगे। यानी जनता का जमा सौ रुपया बरस भर बाद पचहत्तर रुपए रह जाएगा। यानी एक तरफ रुपए का मूल्य कम, दूसरी तरफ महंगाई। बेचने वाले को लाभ ही लाभ। लाभ उठाने वाले सत्ता के करीब, तो उन पर कोई कार्रवाई भी नहीं।
कमाल का अर्थदर्शन है। जब हालात बद से बदतर होने लगें तो सत्ता खुद को हाशिये पर पड़े तबके से जोडऩे के लिए कर के रूप मेें जुटाए पैसे को कल्याणकारी सोच के नाम पर बांटने लगे। फिर दो जून की रोटी के लिए तरसते 70 फीसदी लोगों के घर में चूल्हा-रोटी-बैंक खाते की व्यवस्था कराने में यह कहकर लग जाए कि देश यही है। तो जिस कॉरपोरेट को 100 खरब रुपए का लाभ होगा, वह शासन के कहने पर एक खरब रुपए हाशिये के तबके में बांट देगा। या फिर जिस 30 फीसदी के लिए सिस्टम बनाकर बाजार की अर्थव्यवस्था सोची गई है, उसी 30 फीसदी की कमाई पर इतना बोझ डाल दिया जाए कि वह चिल्लाए तो 70 फीसदी गरीबों का रोना रोया जाए। या फिर जो कॉरपोरेट पसंदीदा हों, उनके लिए देश के तमाम खनिज संसाधनों की लूट के रास्ते खोल दिए जाएं। फिर बाहर निगाह उठे। यानी भारत को हथियार चाहिए या बिजली। कोयला चाहिए या चीनी। बुलेट ट्रेन चाहिए या छोटे हवाई जहाज। सब कुछ बाहर से आएगा। पूंजी उनकी। काम उनका। उत्पाद उन्हीं का। शासन उसके एवज में बस टैक्स लेगा!
सत्ता हो तो फिर कोई भी सिस्टम, या सिस्टम के तहत कोई भी संस्थान, इसके विरोध की पहल नहीं कर सकता। सत्ता खुद संस्थान का प्रतीक है। यानी ‘जिसकी सत्ता, उसके संस्थान’ का विचार जब ऊपर से नीचे तक चल पड़ा हो तो फिर विधायिका हो या कोई अन्य इदारा, निर्णय सत्तानुकूल ही होंगे। सत्ता को सत्ता में रहने के लिए हर क्षेत्र का साथ चाहिए। जो संवैधानिक हैं वे तो साथ खड़े होंगे ही। प्राइवेट वालों को जब जानकारी हो जाएगी कि सत्ता के साथ रहने में मुनाफा और सत्ता बनी रहे तब डबल मुनाफा, तो होगा क्या द्ग हर स्कूल, अस्पताल, बिल्डर, दुकानवाला, गरज कि हर तरह के धंधेवाला चाहेगा कि वह सत्ताधारियों तक पहुंचे या सत्ताधारी उसके दरवाजे तक पहुंचें। जो पैसे वाला होगा, वह पैसा खर्च करेगा। जो समाज को प्रभावित करने वाला होगा, वह सत्ता के लिए प्रभाव का इस्तेमाल शुरू कर देगा। और जब सब तरफ सत्ताधारियों तक पहुंचने या नतमस्तक होने की होड़ होगी तो फिर सत्ताधारी खुद को पारस से कम तो समझेंगे नहीं। तब कमोबेश हर संस्थान, हर पद सत्ता की चौखट पर खड़ा मिलेगा। जनता-सत्ता के बीच संवाद बनाने वाला मीडिया भी फिर सत्ता का होगा। फिर एक दिन सत्ता सोचेगी कि सब कुछ वही तो है। तब वह तय करेगी कि अब कौन-से दरवाजे बंद कर दिए जाएं।
चूंकि चुनावी लोकतंत्र ही जब सेवकों के नाम पर मुनाफा देने-बनाने वाले धंधे में खुद को तब्दील कर लेता है, तो फिर लोकतंत्र का सिरमौर उस घड़ी में क्या सोचेगा। वह यही चाहेगा, सब कुछ उसके अनुकूल हो। राजा को जनता ने चुना है तो राजा की मर्जी जनता की मर्जी बताई जा सकती है। फिर मनमाने निर्णय संभव होंगे। जो वस्तु दुनिया के बाजार में सस्ती है, वह महंगी की जा सकती है। शिक्षा-दीक्षा की परिभाषा पूजा-पाठ में बदली जा सकती है। खान-पान के नियम-कायदे धर्मयोग से जोड़े जा सकते हैं। वैचारिक सोच राजधर्म के साये तले समेटी जा सकती है। जो विरोध या सवाल करें, सत्ता उनसे पीठ कर लेगी। क्योंकि सिस्टम का आधार मुनाफा होगा। बाजार और कॉरपोरेटीकरण। जब पारस नहीं जाएगा तो लोहा, लोहा ही रह जाएगा। पांच बरस बीतने पर कोई दूसरा पारस होगा। उसके दूसरे चहेते होंगे। पर सिस्टम तो यही होगा। सत्ता जिसकी चौखट पर या जो सत्ता की चौखट पर, बस वही रईस, बाकी सब रंक।
वरिष्ठ पत्रकार