इस फैसले के माध्यम से शीर्ष अदालत ने दूध का दूध और पानी का पानी कर दिया है। दोषियों को भारी आर्थिक सजा और पीडि़तों को राहत। लेकिन एक पक्ष है जो दोषी होते हुए भी बच गया है। वह है- वे जिम्मेदार अफसर जो बराबर के दोषी होते हुए भी बच गए हैं। वे जानते हैं कि ज्यादा से ज्यादा विभागीय जांच हो जाएगी। कुछ दिन निलंबन हो जाएगा। फिर बहाल हो जाएंगे। फिर भ्रष्टाचार के मैदान में कूद जाएंगे। नुकसान होगा तो जनता का होगा। बिल्डरों का होगा। वे फिर पाप की कमाई से घर भरने में जुट जाएंगे।
कार्यपालिका ने अपने आपको बचाने के लिए इतने प्रावधान कर रखे हैं कि बड़े से बड़ा अपराध करने के बाद भी वे बच निकलते हैं। हर प्रदेश में अफसरों की मिलीभगत से अवैध निर्माण के सैकड़ों उदाहरण मिल जाएंगे, पर उनका क्या बिगड़ता है। होना तो यह चाहिए कि ऐसी मिलीभगत करने वाले अफसरों को जेल में सड़ाया जाए ताकि फिर कोई कानून से खिलवाड़ की जुर्रत नहीं कर सके। लेकिन हर सरकार ऐसे अफसरों को सिर पर चढ़ा कर रखती है, क्योंकि राजनीतिक दलों की काली कमाई का सबसे बड़ा स्रोत ये अफसर ही होते हैं। इन्हीं अफसरों की हिमायत करने के लिए सरकारें बेशर्मी से ऐसे काले कानून बनवाने की कोशिश करती हैं ताकि घोर से घोर पापी अफसर तक का बाल बांका नहीं हो सके। पहले तो मामला दर्ज करने की अनुमति ही नहीं दी जाती। फिर जांच के नाम पर खानापूर्ति होती है। और कुछ समय बाद भ्रष्ट अफसरों को ऊंचे-ऊंचे पदों से नवाज दिया जाता है।
सरकारों से अपेक्षा करना तो बेकार है। अदालतों को ही एक कदम आगे बढ़ा कर यह सुनिश्चित करना होगा कि ऐसे मामलों में मिलीभगत के दोषी अफसर जेल के सींखचों में पहुंचे। तभी सही मायनों में पूरा न्याय होगा।