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रबड़ स्टाम्प नहीं राष्ट्रपति

Published: Jul 09, 2017 02:25:00 pm

Submitted by:

Kamlesh Sharma

हर बार की तरह इस बार भी राष्ट्रपति चुनाव की प्रक्रिया के दौरान इस पद की प्रासंगिकता पर भी चर्चा जारी है। क्या राष्ट्रपति का कार्य कैबिनेट के निर्णयों पर मुहर लगाना भर है यानी वह ‘रबड़ स्टाम्प’ है, या फिर देश के प्रथम नागरिक को संविधान ने ऐसी शक्तियां भी प्रदान की हैं, जो इस पद को वाकई सर्वोच्च बनाती

president of india

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राष्ट्रपति पद की प्रासंगिकता को लेकर पहली बार सवाल नहीं उठ रहे हैं। राष्ट्रपति चुनाव के दौरान हर बार इस तरह के सवाल उठते हैं और इस पद को लेकर नेताओं का अनर्गल आलाप चर्चा में रहता है। चर्चा, बयान और धारणा को तथ्यों की कसौटी पर जांचा-परखा जाना चाहिए, ताकि राष्ट्रपति पद को लेकर संवैधानिक स्थिति का सही ज्ञान हो सके। 
हर बार की तरह इस बार भी राष्ट्रपति चुनाव की प्रक्रिया के दौरान इस पद की प्रासंगिकता पर भी चर्चा जारी है। क्या राष्ट्रपति का कार्य कैबिनेट के निर्णयों पर मुहर लगाना भर है यानी वह ‘रबड़ स्टाम्प’ है, या फिर देश के प्रथम नागरिक को संविधान ने ऐसी शक्तियां भी प्रदान की हैं, जो इस पद को वाकई सर्वोच्च बनाती हैं। 
इस महत्वपूर्ण प्रश्न का उत्तर जानने के लिए संविधान के संबद्ध अनुच्छेदों और पूर्व राष्ट्रपतियों के कार्यों पर गौर करना होगा। संविधान का अनुच्छेद 52 कहता है कि भारत संघ का एक राष्ट्रपति होगा। तो, अनुच्छेद 53 कहता है कि भारत संघ की कार्यपालिका की शक्तियां राष्ट्रपति में निहित होंगी। 
इसका प्रयोग वह यानी राष्ट्रपति स्वयं या अपने अधीनस्थ अधिकारियों के माध्यम से करेगा और पूर्वगामी उपबंध के द्वारा व्यापकता पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना संघ के रक्षा बलों का सर्वोच्च समादेश राष्ट्रपति में विहित होगा तथा उसका प्रयोग विधि के द्वारा विनियमित होगा। 
जाहिर है, राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद का गठन करता है, जिसका प्रमुख प्रधानमंत्री होता है। आमतौर पर लोकसभा में बहुमत वाले दल या गठबंधन के नेता को प्रधानमंत्री बनाया जाता है। हालांकि जब लोकसभा में किसी भी दल या गठबंधन के पास स्पष्ट बहुमत नहीं हो तब राष्ट्रपति की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। 
यद्यपि संविधान इस बारे में स्पष्ट कुछ नहीं कहता, लेकिन ऐसी परिस्थिति में राष्ट्रपति अपने विवेक से किसी ऐसे नेता को प्रधानमंत्री नियुक्त कर सकता है, जिस पर उसे भरोसा हो कि वह बहुमत साबित कर देगा। 
ऐसे में राष्ट्रपति के निर्णय पर कुछेक मर्तबा विवाद भी खड़ा हुआ है। दरअसल, वर्ष 1979 में चौधरी चरण सिंह से लेकर 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार तक छह बार तत्कालीन राष्ट्रपतियों ने अल्पमत वाले दल के नेता को पीएम नियुक्त किया। इस दौरान देवगौड़ा मात्र 27 एवं चंद्रशेखर महज 61 सांसदों के नेता होने के बावजूद प्रधानमंत्री बने।
अंग्रेजों की सोहबत

दरअसल, भारत में आजादी के बाद संविधान निर्माण के समय राष्ट्रपति पद की परिकल्पना अंग्रेजों की सैकड़ों वर्षों की सोहबत से आई। अन्य लोकतांत्रिक देशों में हेड ऑफ द स्टेट की बात करें तो अमेरिका में राष्ट्रपति सर्वशक्तिशाली होता है, जबकि ब्रिटिश ‘हेड ऑफ स्टेटÓ का पद महारानी को वंशानुगत मिलता है और उसकी स्थिति रबड़ स्टाम्प की-सी होती है।
के.आर.नारायणन का कथन

भारत के राष्ट्रपति की स्थिति अमेरिका तथा ब्रिटेन के सर्वोच्च पद के बीच की मानी जा सकती है। इस तथ्य को सही तरीके से समझने के लिए पूर्व राष्ट्रपति के.आर. नारायणन के कथन पर गौर करें। उन्होंने कहा था कि मैं न तो रबर स्टाम्प (महारानी की तरह) और न ही एक्जीक्यूटिव (यूएसए पे्रसिडेंट) की तरह कार्य करूंगा, अलबत्ता ‘वर्किंग प्रेसिडेंट’ रहूंगा। उन्होंने कई मर्तबा अपनी बात को सही साबित भी किया। 
याद कीजिए, वर्ष 1997 में राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने इन्द्रकुमार गुजराल सरकार की उत्तरप्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश को न सिर्फ पुनर्विचार के लिए लौटा दिया, बल्कि यह भी स्पष्ट कर दिया कि उनके विवेकानुसार यूपी में ऐसे हालात कतई नहीं। इसी तरह, उन्होंने गुजराल सरकार अल्पमत में आई तो 11वीं लोकसभा को भंग भी किया। 
फिर, 1998 में उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी के तेरह दलों के गठबंधन को सरकार बनाने का मौका दिया। तो, उन्होंने ही कारगिल युद्ध के समय वाजपेयी को राज्यसभा बुलाकर कारगिल पर चर्चा करने और सभी को विश्वास में लेने को भी कहा। और तो और, उन्होंने वाजपेयी सरकार की बिहार में राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश को दो बार पुनर्विचार के लिए लौटा शक्तियों के प्रयोग का बेहतर उदाहरण पेश किया।
राज्यपाल के पत्र का जवाब

यहां उल्लेखनीय यह भी है कि के.आर.नाराणन ने बिहार के तत्कालीन राज्यपाल सुंदरसिंह भंडारी के उस पत्र का भी काफी लंबा और तर्कपूर्ण जवाब भेजा, जिसमें भंडारी ने बिहार में बढ़ते अपराध के आंकड़ों का हवाला देते हुए पे्रसिडेंट रूल लगाने की अनुशंसा की थी। नारायणन ने पत्र में तत्कालीन भाजपा शासित एवं अन्य प्रदेशों में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों का ब्योरा देते हुए में बिहार में राष्ट्रपति शासन लगाने जैसे हालात न होने की बात भी स्पष्ट कर दी थी।
जैलसिंह का ‘पॉकेट वीटो’

उनसे पहले राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह ने भी अपने कुछ कार्यों से राष्ट्रपति की शक्तियों का आभास कराया था। उन्होंने तो कैबिनेट के प्रस्ताव को पुनर्विचार के लिए लौटाने के अधिकार से भी आगे बढ़कर’पॉकेट वीटो’ का भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में पहली मर्तबा प्रयोग किया और जब राजीव सरकार का पोस्टल बिल दराज में ही रख लिया, जो आज तक नहीं निकल पाया। इससे पूर्व इंदिरा गांधी की हत्या के पश्चात उन्होंने परंपरा तोड़ते हुए वरिष्ठतम मंत्री इंद्रकुमार गुजराल की बजाय राजीव गांधी को प्रधानमंत्री बनाया। इतना ही नहीं, उन्होंने कई मर्तबा अपने क्रियाकलापों से राष्ट्रपति पद की शक्तियों का अहसास कराया।
मजबूरी का इजहार

नारायणन के उत्तरवर्ती राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने भी वाजपेयी सरकार का ‘ऑफिस ऑफ प्रॉफिट’ बिल पुनर्विचार के लिए लौटा दिया था, जिसे सरकार के दुबारा भेजने पर उन्होंने हस्ताक्षर तो कर दिए, लेकिन यह कहने में भी गुरेज नहीं किया कि मुझे मजबूरन दस्तखत करने पडे़। तो, देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ.राजेंद्र प्रसाद ने भी एक समारोह में स्पष्ट कहा था कि वे ‘रबड़ स्टाम्प’ नहीं हैं। जब डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने राष्ट्रपति के रबड़ स्टाम्प न होने की बात कही, तो उसमें दम है, क्योंकि वे न सिर्फ न्यायविद् थे, बल्कि संविधान सभा के अध्यक्ष भी रहे थे, मतलब संविधान की बारीकियों से अच्छी तरह वाकिफ थे।
मर्सी पिटिशन का अधिकार

सुप्रीम कोर्ट से फांसी की सजा पाए मुजरिम की दया याचिका स्वीकार करने का भी राष्ट्रपति को अधिकार है। इसका प्रयोग सभी राष्ट्रपतियों ने अपने विवेक से किया। जहां शंकरदयाल शर्मा ने एक भी मुजरिम को फांसी ने मुक्त नहीं किया, तो प्रतिभा पाटील ने सर्वाधिक 34, के.आर. नारायणन ने 10 में से 9, तो कलाम ने 25 में से सिर्फ एक याचिकाकर्ता को फांसी से बचाया। दूसरी ओर, प्रणब मुखर्जी ने सर्वाधिक 22 डेथ वारंट साइन किए, यानी मर्सी पिटिशन ठुकराई।
तमाम बातों पर मंथन के बाद साफ होता है कि राष्ट्रपति की भूमिका रबड़ स्टाम्प वाली नहीं, बल्कि वह चाहे तो सक्रिय प्रमुख हो सकता है और जनता के हित को सर्वोपरि रख सकते हैं। नहीं तो, इंदिरा सरकार को आपातकाल में संविधान में 42वें संशोधन के जरिए यह प्रावधान करने की क्या जरूरत थी कि राष्ट्रपति कैबिनेट के फैसलों को मानने के लिए बाध्य है। इस संशोधन को बाद में जनता पार्टी की सरकार ने 44वें संशोधन से समाप्त किया था। बहरहाल, जब राष्ट्रपति सर्वाधिक ताकतवर कार्यपालिका के फैसले को रोक (पॉकेट वीटो) सकता है, सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय (फांसी) को बदल सकता है, तो उसे रबड़ स्टाम्प कहना कतई उचित प्रतीत नहीं होता। हां, यह निर्भर है इस पद पर बैठे प्रथम नागरिक पर।
प्रतिनिधित्व भूमिका

जहां तक प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के चुनाव में प्रतिनिधित्व भूमिका देखें तो राष्ट्रपति का पलड़ा भारी लगता है। दरअसल, प्रधानमंत्री का चुनाव लोकसभा सदस्य बहुमत से करते हैं, जबकि राष्ट्रपति का निर्वाचन लोकसभा, राज्यसभा और सभी राज्यों की विधानसभाओं के सदस्य करते हैं। जाहिर है, राष्ट्रपति की प्रतिनिधित्व भूमिका प्रधानमंत्री से अधिक होती है। 
महाभियोग का प्रावधान

चाहे राष्ट्रपति की प्रतिनिधित्व भूमिका प्रधानमंत्री से ज्यादा हो, लेकिन संविधान में उसे हटाने का प्रावधान भी है। राष्ट्रपति को महाभियोग के जरिए हटाया जा सकता है, लेकिन यहां यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि महाभियोग का प्रयोग तभी किया जा सकता है, जब उसने संविधान का उल्लंघन किया हो, न कि सरकार की बात नहीं मानने पर। और, इसके लिए पूरे सदन के दो-तिहाई बहुमत की आवश्यकता होती है।
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