यह प्रतिक्रिया दुनिया भर की अधिनायकवादी सरकारों के लिए एक उपहार की तरह है, जो ट्विटर और फेसबुक को शिकस्त के लिए डंडे की तलाश में हैं। गैरउदारवादी नेताओं ने यूएस में कार्यकर्ताओं और राजनेताओं की भाषा और कानूनी साधनों को ही अपना लिया है। गौरतलब है कि नाइजीरिया के सूचना मंत्री ने शिकायत में कहा है, ‘नाइजीरिया में ट्विटर का मिशन बहुत संदिग्ध है और उसका एक एजेंडा है।’ रूस ने ट्विटर का फैलाव रोकना शुरू कर दिया है। हाल ही उसने ‘प्रतिबंधित कंटेंट’ को डिलीट न करने पर जुर्माना लगाया है। मास्को भी इन कंपनियों को रूस में कार्यालय खोलने के लिए मजबूर करना चाहता है, ताकि मनमानी करने पर वह अधिकारियों और कर्मचारियों को कब्जे में रख सके। इस बीच, भारत ने कथित तौर पर यह फैसला किया है कि ट्विटर ‘मध्यस्थ’ नहीं, बल्कि प्रकाशक है। इसलिए किसी की शिकायत पर उसे आपराधिक उत्तरदायी ठहराया जा सकता है। उत्तर प्रदेश में ट्विटर के खिलाफ केस भी दर्ज हुआ था। वजह? एक वीडियो वायरल हुआ था जिसमें एक वृद्ध ने दावा किया था कि उसके धर्म के कारण उस पर हमला हुआ। जवाब में, भारत के सूचना मंत्री ने कहा कि यह फर्जी खबरों से लडऩे में ट्विटर की मनमानी का उदाहरण है।
वैश्विक अधिनायकवादी चाहते हैं कि अमरीका के बड़े सोशल मीडिया नेटवर्क उनकी स्थानीय मीडिया के अनुरूप हों। टेक कंपनियों को विवश करने की अमरीकी कार्रवाई दूसरे नेताओं को भी नियंत्रण वाला टूलकिट प्रदान करती है। इसके जरिए वे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसे उचित ठहरा सकते हैं। कंपनियां यदि दूसरे देशों की सरकारों के आदेशों को खारिज करती हैं, लेकिन यूएस में ऐसे आदेशों को स्वीकार करती हैं, तो उन पर पाखंड के आरोप लग सकते हैं।
अमरीका के एक्टिविस्टों को अंतर्मन से समझना चाहिए कि सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म को अनुशासित करने के लिए सरकार ही एकमात्र विकल्प नहीं है। टेक कंपनियों को अपनी ताकत की बड़े पैमाने पर निगरानी भी करनी होती है। कोई यह तर्क देगा कि किसी भी राजनेता की तुलना में ये अधिक भरोसेमंद है। फेसबुक को भारत में अपनी टीम का पुनर्गठन करना पड़ा है, क्योंकि उस पर सरकार के करीब होने का आरोप लगा था। कंपनी की इजरायल सार्वजनिक नीति टीम पर भी ऐसे ही आरोप लगे थे। दुनिया भर के अधिनायकवादी आलोचकों को ऑनलाइन या ऑफलाइन दबाने की कोशिश करना बंद नहीं करेंगे। इसका अर्थ यह नहीं है कि अमरीकी एक्टिविस्टों और राजनेताओं को उनकी मदद करनी चाहिए।