scriptनिजीकरण से दूर न हों प्रतिस्पर्धा के सिद्धांत | principles of competition should not be overcome by privatization | Patrika News

निजीकरण से दूर न हों प्रतिस्पर्धा के सिद्धांत

locationनई दिल्लीPublished: May 11, 2021 08:53:17 am

आर्थिक दक्षता तक सीमित नहीं औचित्य: निजीकरण की नई नीतियां बाजार के सुधारों के लिए।भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग की भूमिका सार्वजनिक फर्मों के निजीकरण के बाद नहीं, बल्कि पहले शुरू होती है।सामान्य तौर पर, सरकार को निजीकरण व प्रतिस्पर्धा के दोहरे लाभ और आपसी संबंध के बारे में आम नागरिकों को भी बताना चाहिए। आर्थिक लोकतंत्र को बढ़ावा देने के प्रयास में भारत को एक व्यापक राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा नीति अपनानी चाहिए।

निजीकरण से दूर न हों प्रतिस्पर्धा के सिद्धांत

निजीकरण से दूर न हों प्रतिस्पर्धा के सिद्धांत

प्रदीप मेहता

ब्रिटेन में निजीकरणकी प्रक्रिया के बचाव में, वहां की तत्कालीन प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर ने कहा था कि यह प्रक्रिया सरकार की शक्तियों को कम करने व नागरिकों की शक्ति में बढ़ोतरी के लिए है। इसके विपरीत, हाल ही में केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने निजीकरण के बचाव में एक बयान में कहा था कि केंद्र सरकार सार्वजनिक बैंकों को इसलिए बेचना चाहती है ताकि वे बैंक अपना काम जारी रख सकें। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी सरकार के कारोबार में कोई दखल न देने पर जोर दिया था। इस संदर्भ में, हमें यह समझने की जरूरत है कि कोविड-19 महामारी के कारण, निजीकरण की प्रक्रिया अन्य सभी सरकारी कार्यों की तरह धीमी हो जाएगी, लेकिन यह रुकनी नहीं चाहिए। ये सुधार इस समय में एक अनिवार्यता है, विशेष रूप से तब, जबकि सरकारी वित्त भारी दबाव में होगा।

यह भी समझने की जरूरत है कि निजीकरण का एकमात्र औचित्य आर्थिक दक्षता तक सीमित नहीं है, और न ही होना चाहिए। इससे आम नागरिकों को होने वाले लाभ की स्पष्ट अभिव्यक्ति, इसके लिए एक व्यापक सर्वसम्मति बनाने व इससे जुड़ी बाधाओं को दूर करने में मददगार हो सकती है। अकेले निजीकरण की नीतियां इसके लाभों को व्यापक करने में अपर्याप्त हैं। बड़े पैमाने पर इन लाभों को आमजन के पास ले जाने के लिए हमें इस प्रक्रिया में प्रतिस्पर्धा के सिद्धांतों को सम्मिलित करने की जरूरत है।

15वें वित्त आयोग के अध्यक्ष नन्द किशोर सिंह ने हाल ही में कहा था कि निजीकरण से प्रतिस्पर्धा के सिद्धांतों को विकृत नहीं किया जाना चाहिए। सार्वजनिक बैंकों का अधिग्रहण करने वाली कंपनियों की चिंताए दूर करने के लिए केंद्रीय वित्त मंत्रालय, भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग और क्षेत्रीय नियामकों में एक समन्वित दृष्टिकोण की आवश्यकता है। जितनी जल्दी हम नन्द किशोर सिंह के सुझाव मान लेंगे, उतनी जल्दी ही निजीकरण के लाभों में आड़े आ रही अड़चनें हटा सकेंगे।

यह ध्यान रखने की बात है कि भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग की भूमिका सार्वजनिक फर्मों के निजीकरण के बाद नहीं, बल्कि पहले शुरू होती है। जब भी सरकार कुछ क्षेत्रों को बाजार प्रतिस्पर्धा से बचाने का निर्णय लेती है, तभी आयोग को संज्ञान लेना चहिए, चाहे यह सार्वजनिक वस्तुओं से संबंधित हो, रणनीतिक हित में हो, राष्ट्रीय सुरक्षा का मामला हो, निजी क्षेत्र से जुड़ा हो, या कोई अन्य। प्रतिस्पर्धा के आदर्श स्तर को सुनिश्चित करने के लिए, हमें सरकारी व गैर सरकारी दावों के पारदर्शी आकलन की जरूरत है। इसमें सार्वजनिक वस्तुओं के वितरण के लिए वैकल्पिक बाजार आधारित तंत्रों का आकलन व स्थानीय क्षमता निर्माण की बाधाएं दूर करना शामिल हैं। यह भी सुनिश्चित करने की जरूरत है कि सरकार जनहित की आड़ में अपनी अक्षमता न छुपाए।

सरकार कुछ समय के लिए किसी कारणवश कई सार्वजानिक क्षेत्रों को प्रतिस्पर्धा प्रक्रिया से बचा सकती है, पर यह अनंत काल के लिए नहीं किया जा सकता है। प्रतिस्पर्धा अधिनियम, 2002 से सार्वजनिक क्षेत्र को छूट स्थायी नहीं होनी चाहिए। सरकार को वह अवधि स्पष्ट करनी चाहिए जिसके लिए छूट जरूरी है। भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग, नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक (सीएजी) व सतर्क नागरिक संस्थाओं को मिलकर सुनिश्चित करने की जरूरत है कि सार्वजनिक फर्म प्रतिस्पर्धी दायरे में कार्यरत रहे। जिन क्षेत्रों में स्थानीय निजी संस्थाओं की क्षमता सीमित है, वहां भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग, सरकारी विभाग व नीति आयोग जैसे थिंक टैंक को काम करना चाहिए ताकि वैश्विक विशेषज्ञता, प्रौद्योगिकी व पूंजी को आकर्षित किया जा सके।

भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग को निजीकरण की प्रक्रिया का प्रतिस्पर्धा के ढांचे के तहत आकलन करने की जरूरत है, ताकि बड़ी कंपनियां ऐसा बाजार प्रभुत्व हासिल न कर पाएं जिसका दुरुपयोग हो सके। ओमान में निजीकरण प्राधिकरण उन प्रक्रियाओं के माध्यम से बोलीदाताओं का चयन करता है जो पारदर्शिता, समान अवसर, गैर-भेदभाव और मुक्त प्रतिस्पर्धा के सिद्धांतों को ध्यान में रखते हैं। विकसित व विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में निजीकरण के प्रयास के ऐसे बहुत से उदाहरण है जो लोगों व मार्केट के हित में नहीं रहे। ब्रिटेन, अर्जेंटीना व मोजांबिक में पानी और रेल सेवाओं में कुछ ऐसा ही देखने को मिला है। यह बात सच है कि एक ही प्रकार का ढांचा हर जगह कारगर नहीं होता है, पर मजबूत नियामक और प्रतिस्पर्धा व्यवस्था यह सुनिश्चित करती है कि निजीकरण का लाभ सभी के लिए हो, न कि कुछ के लिए।

हाल ही एक अध्ययन में, एसट्रीन व पैलेटिएर ने ऐसे सुझाव दिए जिनसे विकासशील देशों में, निजीकरण की प्रक्रिया सफल हो सकती है। इनमें नई घरेलू फर्मों के प्रवेश की बाधाएं कम करना, नौकरशाही के हस्तक्षेप को दूर करना, विदेशी निवेश के लिए खुलापन, मजबूत और स्वतंत्र नियामक के तहत प्रभावी प्रतिस्पर्धा व्यवस्था, सरकार और निजी फर्मों में आत्मनिर्भरता और एक-दूसरे के काम में हस्तक्षेप न करना शामिल है। विभिन्न नीतियों जैसे जीएसटी से लेकर कृषि क्षेत्र के कानूनों तक, केंद्र सरकार प्रतिस्पर्धा समर्थक सिद्धांतों का पालन कर रही है और सरकार को आगे भी इसी तर्क का विस्तार करना चाहिए। सामान्य तौर पर, सरकार को निजीकरण व प्रतिस्पर्धा के दोहरे लाभ और आपसी संबंध के बारे में आम नागरिकों को भी बताना चाहिए। उन्हें समझाना चाहिए कि नई नीतियां व्यापार सुधारों नहीं, बल्कि बाजार सुधारों के लिए हैं। कोविड-19 महामारी ने भी हमें यही सीख दी है। आर्थिक लोकतंत्र को बढ़ावा देने के प्रयास में भारत को एक व्यापक राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा नीति अपनानी चाहिए।
(लेखक एक वैश्विक सार्वजनिक नीति अनुसंधान समूह ‘कट्स’ इंटरनेशनल से जुड़े हैं)
(सह-लेखक: अमोल कुलकर्णी)

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