हर सरकार मुकदमों के अंबार पर चिंता तो जताती हैं लेकिन सार्थक उपाय नहीं करती। सवा सौ करोड़ से अधिक जनसंख्या वाले देश की अदालतों में लगभग तीन करोड़ मामले लंबित हैं। निचली अदालतों में पांच हजार जजों की कमी चल रही है। ऐसे में पक्षकारों को न्याय कैसे मिले? मात्र एकाध जज अगर तत्परता से काम कर भी लें तो हालात में सुधार आने वाला नहीं है। इतनी बड़ी तादाद में मुकदमों के लंबित होने के बावजूद अदालतों में होने वाली छुट्टियां परेशान करने वाली हैं। कभी ग्रीष्मकालीन तो कभी शीतकालीन अवकाश। इसके बाद आए दिन कभी वकीलों की हड़ताल, तो कभी कोई और कारण। ऐसे में मुकदमों का निपटारा हो तो कैसे?
सवाल जितना गंभीर है, उसका निदान निकालने वाले उतने गंभीर नजर नहीं आते। सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति को लेकर सरकार और न्यायपालिका के बीच टकराव की खबरें आमजन को विचलित करती हैं। जजों की नियुक्ति करने का अधिकार किसके पास रहे, इस विवाद ने देश के लाखों पक्षकारों को परेशान कर रखा है। पक्षकार हैं कि खून-पसीने की कमाई अदालतों के चक्कर लगाने में गंवा देते हैं। न्याय की उम्मीद में मुकदमा लड़ते-लड़ते पीढिय़ां बदल जाती हैं। समय आ गया है जब सरकार और न्यायपालिका आम आदमी की इस समस्या के समाधान के लिए आगे आए।
जजों की नियुक्ति व अन्य मुद्दों को प्रतिष्ठा का सवाल न बनाकर सकारात्मक दिशा में आगे बढ़े। तभी एक नए सवेरे की उम्मीद की जा सकती है। हालांकि जिस रफ्तार से ये फैसले लिए गए हैं उसमें यह बात भी देखनी होगी कि कहीं जल्दबाजी में किसी निरपराध के साथ अन्याय नहीं हो जाए?