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जागरूक बनने का वादा खुद से करें

locationनई दिल्लीPublished: Jul 20, 2020 02:58:57 pm

Submitted by:

shailendra tiwari

कुछ ही लोग होते हैं जो यह भली प्रकार समझ जाते हैं कि साधन और संसाधनों की भारी भरमक मौजूदगी कभी भी सुख और सुकून का पर्याय नहीं होंगे । कोरोनाकाल ने यह हम सबको अच्छी तरह समझा दिया है।
 

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पूनम पांडे, समाजशास्त्री

जीवन से किसी लय में जुड़ना और उसमें हर पल सुंदरता ही जोड़ना सबसे सरल कला है लेकिन यह खूबी कभी भी ‘कलाकारी’ से नहीं ‘दिलदारी’ से ही आती है। दिलदारी का मतलब संत कबीर उस उदारता के लिए समझाते हैं जहां भोग से अनुराग नहीं बल्कि भागने का मन होता है क्योंकि यह है ही झूठ और झूठे भोग विलास से हम औरों को नहीं खुद को धोखा देते है।
कुछ ही लोग होते हैं जो यह भली प्रकार समझ जाते हैं कि साधन और संसाधनों की भारी भरमक मौजूदगी
कभी भी सुख और सुकून का पर्याय नहीं होंगे । कोरोनाकाल ने यह हम सबको अच्छी तरह समझा दिया है।
बुल्लेशाह कहते हैं कि क्या ऐसा कभी सम्भव हो सकता है कि हम किसी भौतिक सुख के आकर्षण मे उससे बेमतलब पाना चाह रहे हों और खुद हमें ही इसका पता नहीं हो। हमारी आत्मा उसकी आवाज और उसके अहसास में ऐसा ही कुछ अनकहा, अदृश्य, एकांतिक लेकिन अंधेरे में उजास की तरह का यह अनूठा भाव होता है जो बार बार समझाता है कि सिर्फ सांसारिक लोभ असल में विरोधाभासों से लदे -फदे हैं। इसमें मैं यानि स्वार्थ की तरल लालसा ही हो सकती है और आक्रोश या विद्रोह की आर्तनाद करती लपटें भी।
एक बार एक लालची जौहरी और एक किसान की अचानक ही मुलाकात हो गई । किसान गरीब था मगर उसके हाथ मे बेशकीमती मोती थे जो जौहरी ने दूर से ही परख लिये थे। किसान ने एक दिन पहले ही पूर्णिमा की रात इनको सागर की लहरों से चुन कर जमा किया था ।जौहरी ने किसान से बिलकुल छिपाकर कुछ रूपया अपनी कांख मे दबाकर रखा ।अब सौदे के मुताबिक किसान ने सारे मोती दे दिये और जौहरी ने दिखाने के लिए पास रखे सारे रूपये देकर वो पूरे मोती खरीद लिये । किसान को सही सही कीमत मिल गई और वो अपने रास्ते चला गया ।जौहरी भी अपने ठिकाने लौट गया। मगर जीवन के अंतिम पल तक जौहरी को यह शक होता रहा कि जरूर किसान ने कुछ मोती अपनी कांख मे दबा लिये थे । यानि जिसने भी वहम या संदेह से ही दिल लगाया है वो ही समझ सकता है कि यह बीमारी आत्मा के सुकून की कितनी बडी़ दुश्मन है।
कबीर कहते हैं कि एक अदृश्य शक्ति को महसूस करते रहो उसका होना नितांत व्यक्तिगत अनुभवों, राग-भावों, प्रकृति, मानवीय जीवन की खुशहाली और त्रासदियों से गुजरते हुए विश्व ही नहीं, समूचे ब्रह्मण्ड को समेटने की सम्भावना रखता है।अपने स्वार्थ को सम्हालते हुए अपने ही स्वरूप का अनन्त फैलाव और अपनी अपनी चाहत की सीमाएं समझ में भी आती रहती हैं। सुकरात हमेशा सच पर बल देते थे और नवयुवकों को सत्य की जानकारी भी दिया करते । एक बार एक अमीर उनके पास अपने एक फिजूलखर्च पुत्र को लाया वो जवान था लेकिन नासमझ, बस हर वस्तु पर झपट ही पड़ता और कहता कि” यह तो मुझे चाहिए और यह भी मुझे ही चाहिए ।” एक दिन सुकरात उसको एक दुकान पर साथ ले गया वो चमकदार दुकान थी और ऐसी दुकान जहां सब तरह का सामान बिकता था,
सुकरात वहां पर टकटकी लगाए खड़ा था। युवक भी उसको आश्चर्य से देखता ही रहा और जब सहन नहीं हुआ तो कान में फुसफुसाकर उसने कहा आपको कुछ लेना है तो सुकरात ने हंसकर कहा कि , ‘अहा, कितनी सारी चीजें हैं जिनकी मुझे कोई भी जरूरत नहीं।’ यह सुनकर उस लड़के ने भी सब चीजों पर दोबारा नजर दौडा़कर कहा कि ,”हां सही बात है इनके बगैर काम चल सकता है ।” मतलब साफ है कि संतुष्ट रहने वाले सर्वोत्तम है सफल रहने वाले नहीं सफलता अंतिम नहीं होती , स्वभाव और अभाव जीवन भर तंग करते हैं मगर रहना इनके साथ है और हंस हंस कर रहना चाहिए।
अच्छा सोचने की सीमा है पर गलत सोचने की कोई सीमा नहीं है। हम उसे चाहे जितना विस्तार दे सकते हैं। गौतम बुद्ध ने कहा है कि दूसरों के बारे में गलत सोचने से उसका कुछ नहीं बिगड़ता है बल्कि जो किसी के बारे में गलत सोचता है उसका ही अहित होता है। पर आदमी को प्रथम दृष्टा यह नहीं समझ में आता है। अनजाने में हम अपना कितना नुकसान कर जाते हैं जिसकी भरपाई मुश्किल ही नहीं असंभव होती है। प्राचीनकाल से यह चला आ रहा है दुर्योधन ने पांडवों के लिए गलत सोचा विनाश को प्राप्त हुआ। कंस ने, रावण ने हिटलर जिसने भी गलत दिशा में कदम उठाए वो सब आखिर बरबाद हो गए। मनुष्य यह समझता भी है पर अपने को रोक नहीं पाता। बुरे विचार उस पर हावी हो जाते हैं विचार प्रवाह में वह बह जाता है। बुरे विचार गले में पत्थर बांधकर नदी में उतरने वाली बात है डूबना निश्चित है। कोई हमें बचा नहीं सकता। किनारे नहीं लगा सकता। जब से दुनिया बनी है सभ्यता का विकास हुआ है। अच्छे-बुरे का खेल चल रहा है। अब यह हम पर है कि किस रास्ते पर चलें किस पर नहीं।सबका भला सोचने से सब सुंदर होता है ।
अपना अहित करने वाले का भी हित ही चाहें तो किसी का कभी अहित नहीं होगा। भगवान ने मन एक ऐसी वस्तु बनाई है उसमें सुभाव, कुभाव, सुविचार, कुविचार सब आते हैं। हमारा वजूद कितना भारी है उस पर निर्भर करता है कि विचार हम पर कितना प्रभाव डालते हैं। कैसा वातावरण और वृत्त बनाते हैं। कभी-कभी आदमी दूसरों से उसकी नियत जाने बिना इतना प्रभावित हो जाता है कि अंजाम सोच नहीं पाता। माता सीता रावण की बातों में आ गईं, लक्ष्मण रेखा पार कर दी, उनका अपहरण हुआ फिर आगे क्या क्या हुआ सारे संसार को मालूम है। कई बार लोगों की बातें बहुत लुभावनी लगती हैं। हम बह जाते हैं जब होश आता है तब तक बरबादी हो चुकी होती है।
सच यही है कि ,जागरूक बनने का वादा खुद से करना होगा दूसरों से नहीं जब अपना हौसला होगा तभी सही फैसला भी होगा ।एक न एक उपयोगी सलाह हम सबके अन्तरमन के पास होती है और हमें ये ज़रूर सुननी चाहिए, अगर हम इसे नहीं सुन पाएंगे तो हम अपने वजूद का कोई हिस्सा खो देंगे। यह गौर से सुनना हम पर फ़र्ज़ है ।
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