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जनता की सुनें!

Published: Jan 13, 2018 01:54:13 pm

स्थानीय अफसर सुनते नहीं और राजधानियों तक जाने की उनकी हैसियत नहीं। संवादहीनता ने उनके गुस्से को पत्थर तक पहुंचा दिया।

nitish kumar

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बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार शुक्रवार को अपने काफिले पर हुए हमले में बाल-बाल बच गए। मुख्यमंत्री के काफिले में शामिल उनके दो सुरक्षा कर्मियों के चोटें आईं। कहने की बात नहीं कि सभ्य समाज में हिंसा व तोड़-फोड़ के लिए कहीं कोई जगह नहीं होनी चाहिए और भारत जैसे लोकतंत्र में तो इसके लिए रत्तीभर भी जगह नहीं। फिर सवाल यह उठता है कि ऐसी हिंसक घटनाएं आखिर होती क्यों हैं? क्या इन्हें रोका जा सकता है अथवा नहीं रोका जा सकता?
सवाल यह भी है कि आक्रोश से उपजी ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए बल प्रयोग ही जरूरी है अथवा अन्य कोई उपाय भी हो सकते हैं। इतिहास में अधिक जाने की जरुरत नहीं है। अपने आप को भारत तक सीमित रखते हुए देखें तो पहले सवाल का जवाब यह है कि, जहां-जहां ऐसी घटनाएं होती हैं उसके मूल में भेदभाव, उससे बनने वाला असंतोष और फिर संवादहीनता होती है।
नीतीश कुमार के साथ बक्सर में जो घटना हुई, उसमें ग्रामीणों की शिकायत यह थी कि, ‘विकास पुरुष मुख्यमंत्री’ विकास देखने निकले हैं तो हमारे गांव और उसकी दलित बस्ती को भी देख लें। नीतिश कुमार के सलाहकार सरकारी अफसरों को यह मांग ठीक नहीं लगी। इसके बाद भी सरकार या प्रशासनिक अमला नहीं चेता। कोई उन ग्रामीणों के पास बात करने या उनकी तकलीफ जानने भी नहीं गया। उल्टे मुख्यमंत्री को लेकर सीधे निकलने लगे। ग्रामीणों का गुस्सा पत्थरबाजी की शक्ल में फूट पड़ा।
प्रश्न यह है कि मौलिक सुख-सुविधाओं की मांग के लिए ग्रामीण किससे फरियाद करें। स्थानीय अफसर सुनते नहीं और पटना अथवा राजधानियों तक जाने की उनकी हैसियत नहीं। संवादहीनता ने उनके गुस्से को पत्थर तक पहुंचा दिया। ऐसी घटनाओं से सरकारों और राजनेताओं को सबक लेना चाहिए। भारत की जनता अब १९४७ वाली नहीं है। उसमें सहनशीलता अभी बाकी है पर उसकी एक सीमा है। यह सीमा टूटती है तो उग्रवाद या नक्सलवाद जन्म लेते हैं। जिसकी इजाजत हमें नहीं देनी चाहिए। राजनेताओं और सरकार में शामिल लागों को भी सोचना होगा कि जनता ने उन्हें भेजा है यदि उनकी उपेक्षा करेंगे तो विरोध विस्फोटक तो होगा ही।

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