2015 के मिंस्क समझौते के बाद, जिसका उद्देश्य पूर्वी यूक्रेन में संघर्ष को समाप्त कर राजनीतिक प्रक्रिया को शुरू करना था, यह अनुमान लगाना आसान है कि घरेलू लाचारी ने पुतिन की व्यापक कार्रवाई की क्षमताओं पर अंकुश लगाया। गूगल समर्थित घटनाओं के वैश्विक डेटाबेस जीडीईएलटी से मिले आंकड़ों का मेरा विश्लेषण दर्शाता है कि रूस में विरोध की गतिविधियां एक वर्ष पहले की तुलना में दोगुनी हुई हैं और कोविड-19 के आर्थिक प्रभावों के चलते इसमें कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं है। पिछले वर्ष पुतिन के रूसी संविधान में एक संशोधन से अब जबकि पुतिन के लम्बे समय तक राष्ट्रपति बने रहने का रास्ता साफ हो गया है, ऐसे में उन लाचारियों का ज्यादा अर्थ नहीं रह गया है। क्रेमलिन कोरोनावायरस को लेकर भी चिंतित नहीं है। टीकाकरण की अपेक्षाकृत कम दर होने के बावजूद रूसी अर्थव्यवस्था वैसे ही खुली है, जैसे कि टीकाकरण में अव्वल इजरायल की। कुछ यूरोपीय देश पहले से ही रूस निर्मित स्पूतनिक-वी वैक्सीन ले रहे हैं। ऐसे में यूरोपीय राष्ट्र पूरी ताकत से यूक्रेन मामले में हस्तक्षेप करें, इस लिहाज से संभवत: यह सबसे कठिन राजनीतिक क्षण है। यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदीमीर जेलेंस्की ने नाटो महासचिव जेंस स्टोल्टेनबर्ग से भी कहा है कि युद्ध खत्म करने का केवल एक ही तरीका है – उनके देश को नाटो की सदस्यता मिले। लेकिन असुरक्षित और अस्थिर देश को अमरीकी सैन्य गारंटी दिवास्वप्न ही है। कुछ सैनिकों को इधर से उधर कर पुतिन न केवल यूक्रेन को यह याद दिलाना चाहते हैं कि वह सैन्य कार्रवाई के बारे में सपने में भी न सोचे, बल्कि रूसी हमले की स्थिति में पश्चिमी देशों को अपने विकल्पों पर विचार करने का न्योता भी दे रहे हैं। पुतिन अभी भी मानते हैं कि रूस बहुध्रुवीय दुनिया के संभावित ध्रुवों में से एक हो सकता है और रूस कोई ऐसा राष्ट्र नहीं जिसे किसी भी वैश्विक विचार मंथन में बाद में शामिल करने की चीज समझा जाए।
(लेखक स्तम्भकार हैं और जॉर्ज ऑरवेल की किताब ‘1984’ का हाल ही रूसी में अनुवाद किया हैं)
ब्लूमबर्ग