डब्ल्यूएचओ की ओर से दुनिया भर में इस भारतीय सिरप के बारे में एडवाइजरी जारी हुई। इससे भारत की साख पर बट्टा लगा है। स्वाभाविक तौर पर यह दूरगामी दुष्परिणामों वाली घटना है, जो भारत के पूरे फार्मास्यूटिकल जगत के प्रति संदेह के बीज बोएगी। घटना भारत के तंत्र पर गंभीर सवाल भी खड़े करने वाली है कि कफ सिरप के लिए आवश्यक रिसर्च और उसके निष्कर्षों को हमारे यहां गहनता से देखा जा भी रहा है या नहीं? सिरप बनने के बाद भी बैच की जांच होती है। सवाल यह है कि उसमें यह तथ्य सामने आया या नहीं कि सिरप में घातक तत्व और उनकी अधिकता है। आया था तो इन्हें मंजूरी कैसे मिली? इसके बाद ये दवाइयां अंतरराष्ट्रीय बाजार में बिकने के लिए कैसे चली गईं? डब्ल्यूएचओ के अलर्ट और सूचना के बाद भारत के औषधि महानियंत्रक ने मामले की जांच शुरू की है। उम्मीद है कि औषधि महानियंत्रक दवा की गुणवत्ता के लिए जवाबदेह सरकारी तंत्र की कमियों को भी इंगित करेंगे। अपेक्षा यह रहेगी कि इन कमियों को दूर करने के लिए ठोस कदम उठाए जाएंगे।
दुनिया में भारत की दवा से इतनी बड़ी संख्या में लोगों की जान जाने का यह पहला मामला है, लेकिन देश इस सच्चाई से अनजान नहीं है कि यहां घटिया के साथ नकली दवाइयों तक के उदाहरण निरंतर सामने आते रहे हैं। सरकार की ही एक रिपोर्ट है कि देश में जम्मू-कश्मीर में सर्वाधिक 17 प्रतिशत दवाइयां घटिया दर्जे (सब-स्टैंडर्ड) की होती हैं। दवा के हब हिमाचल प्रदेश में यह प्रतिशत करीब 7 है। हरियाणा का उदाहरण तो सामने ही है, जिससे दुनिया भर में भारत की बदनामी हुई है। समस्या यह है कि सरकार के संज्ञान में आने वाले घटिया दवा निर्माण के मामलों में भी कार्रवाई मात्र पंद्रह-बीस प्रतिशत मामलों में ही होती है। कार्रवाई के नाम पर भी केवल पांच-दस दिन के लिए लाइसेंस निलंबित करने के हल्के प्रावधान भी दवा कंपनियों को शह देने वाले हैं। दवा जगत को गुणवत्तापूर्ण बनाने के लिए इन्हें भी सख्त करना होगा।