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कोरम न काम, क्यों हो नया धाम?

Published: Dec 28, 2015 11:38:00 pm

लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने भविष्य की जरूरतों को ध्यान में रखते
हुए नये संसद भवन की आवश्यकता जताई है। वजह 2026 में बढऩे वाली सांसदों की
संभावित संख्या

Opinion news

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लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने भविष्य की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए नये संसद भवन की आवश्यकता जताई है। वजह 2026 में बढऩे वाली सांसदों की संभावित संख्या। लेकिन यहां बड़ा सवाल यह है कि जब आज संसद में कामकाज पूरी तरह ठप है और संसद आए दिन हंगामे की भेंट चढ़ती रहती है। सांसद सदन में बैठने की बजाय केन्द्रीय हॉल में गप्प ठोकते नजर आते हैं। तब क्यों तो सांसदों की संख्या बढ़े और क्यों नया भवन बने? इन्हीं सवालों के जवाब ढूंढते पढि़ए आज का स्पॉटलाइट…

संसद भवन का संक्षिप्त इतिहास
संसद भवन का शिलान्यास 12 फरवरी 1921 को ड्यूक ऑफ कनाट ने किया था। इस महती काम को अंजाम देने में छह साल का लंबा समय लगा। इसका उदघाटन तत्कालीन वायसराय लॉर्ड इरविन ने 18 जनवरी 1927 को किया था। संसद भवन के निर्माण कार्य में कुल 83 लाख रुपये की लागत आई।

स्थापत्य : प्रसिद्ध वास्तुविद लुटियंस ने भवन का डिजाइन तैयार किया था। खंभों तथा गोलाकार बरामदों से निर्मित यह पुर्तगाली स्थापत्यकला का अदभुत नमूना है। सर हर्बर्ट बेकर के निरीक्षण में निर्माण कार्य संपन्न हुआ। प्राचीन भारतीय स्मारकों की तरह दीवारों तथा खिड़कियों पर छज्जों का इस्तेमाल किया गया है।


संसद भवन के तीन भाग हैं- लोकसभा, राज्यसभा और केंद्रीय हॉल।

लोकसभा कक्ष
लोकसभा कक्ष अर्धवृत्ताकार है और करीब 4800 वर्ग फीट में फैला हुआ है। सर रिचर्ड बेकर ने वास्तुकला का सुन्दर नमूना पेश करते हुए काष्ठ से सदन की दीवारों तथा सीटों का डिजाइन तैयार किया था। इस सदन में 550 सदस्यों के बैठने की व्यवस्था है। स्पीकर की कुर्सी के दाहिनी ओर सत्ता पक्ष के लोग बैठते हैं और बायीं ओर विपक्ष के लोग बैठते हैं।

राज्य सभा कक्ष
इसको उच्च सदन कहा जाता है। इसमें सदस्यों की संख्या 250 तक है। यह स्थायी सदन है।

केंद्रीय हॉल
केंद्रीय कक्ष गोलाकार है। इसके गुंबद का व्यास 98 फीट (29.87 मीटर) है। यह विश्व के सबसे महत्वपूर्ण गुम्बद में से एक है। 15 अगस्त 1947 को अंग्रेजों से भारतीय हाथों में सत्ता हस्तांतरण इसी कक्ष में हुआ था। भारतीय संविधान का प्रारूप भी इसी हॉल में तैयार किया गया था। वर्तमान में केंद्रीय हॉल का उपयोग दोनों सदनों की संयुक्त बैठकों के लिए होता है, जिसको राष्ट्रपति संबोधित करते हैं।


यही हालात,तो 2050 में भी जरूरत नहीं

नीरजा चौधरी वरिष्ठ पत्रकार
यह बहुत ही अनुपयोगी और भावनाओं का आहत करने वाला सुझाव है। लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन बहुत लंबे समय से संसद की सम्मानीय सदस्य रही हैं। वे संसद के इतिहास और उसकी गरिमा से पूरी तरह से वाकिफ भी हैं, इसके बावजूद उनकी ओर से ऐसे सुझाव का आना, मन को चोट पहुंचाने वाला है। उनसे तो ऐसी उम्मीद नहीं की जा सकती है।

प्रश्न केवल खर्च का नहीं
कोई यह कहे कि नए संसदीय भवन को नई टेक्नोलॉजी के अनुरूप बनाने में 1000 से 2000 करोड़ रुपए के बीच खर्च तो आएगा ही, ऐसे में इतना बड़ा खर्च करने की आवश्यकता क्या है तो मेरा तर्क यही है कि संसदीय कामकाज और इसकी गरिमा को खर्च से तौलना बिल्कुल भी ठीक नहीं लगता। लेकिन, मामला केवल खर्च का नहीं बल्कि संसदीय लोकतंत्र से जुड़ा है।

आवश्यकता ही क्या है
कहा तो यह जा रहा है कि संविधान के अनुच्छेद 81 के मुताबिक 2026 में शायद 2021 की जनगणना के आधार पर सांसदों की संख्या तय होगी। तब नए सांसदों के जुडऩे से, उनके बैठने की जगह ही नहीं होगी क्योंकि वर्तमान में ही क्षमता के मुताबिक सीटें उपलब्ध नहीं हैं। यह बहुत ही अतार्किक बात लगती है और इसीलिए मेरा मानना है कि यह बहुत ही गलत समय दिया गया सुझाव भी है।

भले ही बैठने की क्षमता के मुकाबले सांसदों की संख्या बहुत अधिक हो लेकिन पिछली संसद और वर्तमान के आंकड़े उठाकर देख लीजिए कि क्या हमारे सांसद , संसद भवन में बैठते भी हैं? पूरे-पूरे सत्र खाली चले जाते हैं, केवल हंगामे और शोर के अतिरिक्त कुछ होता है संसद में? जब कामकाज ही नहीं करते सांसद, सदन का कोरम पूरा करने के लिए घंटी ही बजती रहती हो, बजट सत्र पारित करने के भी लाले पड़ते हों, ऐसे में सीटों की क्षमता 2026 में कम पड़ेगी का तर्क बेमानी है। वर्ष के आंकड़ो को और आगे ले जाकर 2050 भी कर लीजिए, कोई फर्क नहीं पड़ता! ब्रिटेन की संसद को ही लीजिए। कई सौ वर्षों से उसी इमारत में संसदीय कामकाज होता है और हॉल खचाखच भरा रहता है।

सवाल कामकाज व भवन की ऐतिहासिकता से जुड़ा है। ऐतिहासिक स्थान का कोई विकल्प नहीं होता। हमारे संसद भवन की ऐतिहासिकता है, उसके साथ भावनाएं जुड़ी हुई हैं। ऐसे में उसे बदलने की बात सोचना भावनाओं से खिलवाड़ करना, इतिहास से छेड़छाड़ करना और संसद की गरिमा को आहत करने जैसा है। यह तो संसदीय प्रक्रिया या संसदीय लोकतंत्र को बदलने जैसी सोच लगती है।

और भी हैं विकल्प
युवाओं के मन में हो सकता है कि नए संसदीय भवन की सोच आ भी जाए लेकिन पुराने सांसदों से ऐसे तर्कों की उम्मीद नहीं की जा सकती। पूर्व में जब महिला आरक्षण विधेयक पर चर्चा हुई तो एक संसदीय क्षेत्र से महिला और पुरुष, दो सांसदों को चुनने का सुझाव आया। इस सुझाव पर यही कहकर ऐतराज जताया गया कि इतने सांसदों को बैठाएंगे कहां? तब इस ऐतराज पर तर्क दिया गया था कि सेंट्रल हॉल को लोकसभा में परिवर्तित किया जा सकता है, उसकी तो बैठने की क्षमता भी अधिक है। ऐसे में यदि अब भी यदि बैठने की क्षमता को लेकर परेशानी है तो फिर से सेंट्रल हॉल के बारे में विचार हो सकता है। सेंट्रल हॉल में होने वाले या इसके अलावा अन्य कार्यक्रमों के लिए अन्यत्र भवन बना लिया जाए। इससे बैठने की क्षमता की परेशानी का समाधान हो सकता है लेकिन अब भी मेरा कहना है कि जो क्षमता है पहले उसका तो उपयोग करें।

केंद्रीय हॉल का हो सकता है उपयोग
अरविन्द मोहन वरिष्ठ पत्रकार
भविष्य में संसद के दोनों सदनों में सदस्यों की संख्या के हिसाब से करीब सौ साल पुराना यह भवन छोटा पड़ेगा। लोकसभा अध्यक्ष इस बारे में कह रहीं हैं कि मौजूदा भवन की जगह नए की जरूरत है तो जिम्मेदारी से ही कहा होगा। वे संसद के लिए नई नहीं हैं। उन्हें सदन की बैठकों में रहने का लम्बा अनुभव है। लेकिन हमें यह भी देखना होगा कि केंद्रीय हॉल के रूप में विशाल भवन सिर्फ गप्प मारने के अलावा कुछ काम नहीं आ रहा।

जरूरत है या अंधविश्वास!
नए संसद भवन की जरूरत की चर्चाओं के बीच यह चर्चा भी काफी जोरों पर है कि निर्माण सम्बन्धी कुछ वास्तुदोष के कारण इस इमारत की जगह नई इमारत की जरूरत महसूस की जाने लगी है। भारतीय जनता पार्टी को कुछ ज्योतिष के जानकार ऐसी राय दे रहें, बताएं। ऐसी ही राय के चलते दिल्ली भाजपा कार्यालय में भी तोडफ़ोड़ की गई थी। वैसे मुझे इन चर्चाओं में ज्यादा दम नहीं दिखता लेकिन यदि ऐसा है तो बदलाव की बात बिल्कुल नहीं होनी चाहिए।

वैसे हम लम्बे समय से देख रहे हैं कि पार्लियामेंट एनेक्सी भी बनाई गई है। लाइब्रेरी व लोकसभा चैनल के कामकाज भी यहीं से हो रहे हैं। साल 2026 में परिसीमन के आधार पर संसदीय क्षेत्र बढऩे भी हैं। ऐसे में दस साल बाद तो जरूरत विस्तारित भवन की होनी ही है। लोकसभा अध्यक्ष की चिंता अपनी जगह वाजिब हो सकती है लेकिन कुछ बिन्दुओं पर गौर करना ही होगा। हमें उन बातों पर ध्यान देना होगा जिनके कारण संसद के दोनों सदनों की प्रासंगिकता कम होती जा रहीं है।

बहस होती ही नहीं
संसद में बहस सबसे बड़ा काम होना चाहिए, वह नहीं हो रहा। बिना बहस के कई बिल पास हो गए। किसी बिल को पास करना है यह अंदर बैठे लोग भलीभांति जानते हैं। संसद की विभिन्न समितियां ही सदन में लाए जाने वाले बिल का प्रारूप तय करने में लगीं हैं। एक तरह से पार्लियामेंट के छोटे-छोटे रूप बन गए हैं जहां बहस और चर्चा हो जाती है। चिंता की बात यह भी है कि कारपोरेट्स व माफियाओं का हित साधने वाले लोग इन समितियों में शामिल हो गए हैं। हमें पता ही नहीं चलता और बिल बनने की स्टेज पर ही सम्बन्धित लोगों की इसकी जानकारी हो जाती है। पार्लियामेंट स्टडीज के नाम पर बने एनजीओ तक इस काम में रुचि लेने लगे हैं।

हो सत्ता का विकेन्द्रीकरण
नए हाउस की चर्चा होने के साथ ही इस बात पर मंथन होना चाहिए कि निचले स्तर पर सत्ता का विकेन्द्रीकरण कैसे किया जाए। पंचायत राज के माध्यम से जो विकेन्द्रीकरण का प्रयास हुआ वह भी काफी पुराना हो गया। पंचायतें खुद अपने ही फैसले नहीं कर पा रहीं। नए निर्वाचन क्षेत्र बनें तब भी इस बात का ध्यान रखना होगा कि पिछड़े व उपेक्षित इलाकों को समुचित प्रतिनिधित्व मिल पाए।

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