बहरहाल, रेखाओं की मुक्ति के निमित कला की टैगोर की यात्रा कविता की लय सरीखी है। रवींद्रनाथ एक स्थान पर कहते भी हैं, ‘मेरी चित्रकला की रेखाओं में मेरी कविताएं हैं।’ पेरिस की गैलरी पिगाल में 1930 में उनके चित्रों की प्रथम प्रदर्शनी जब लगी तभी रवींद्रनाथ के चित्रकर्म पर औचक विश्वभर का ध्यान गया। बाद में लंदन, बर्लिन और न्यूयार्क गैलरियों के साथ यूनेस्को द्वारा आयोजित अंतरराष्ट्रीय आधुनिक कला प्रदर्शनियों में भी उनके चित्र सम्मिलित हुए। रवींद्रनाथ के चित्रों की खास संरचना, उनमें निहित संवेदना और अंतर्मुखवृति के साथ परम्परा से जुदा मौलिकता ने सदा ही मुझे आकर्षित किया है। याद पड़ता है, पहले पहल जब रवींद्रनाथ की बनाई ‘मां व बच्चा’ कलाकृति देखी तो लगा जीवन को कला की अद्भुत दीठ से व्याख्यायित करते उनके चित्र, कला की अनूठी दार्शनिक अभिव्यंजना है। उन्हीं का बनाया एक बेहद सुन्दर चित्र है ‘सफेद धागे’। इसमें स्मृतियों का बिम्बों के जरिए अद्भुत स्पंदन है। ‘थके हुए यात्री’, ‘स्त्री-पुरुष’ जैसे मानव चित्रों के साथ ही पक्षियों के उनके रेखांकन में एक खास एकांतिका तो है, परंतु अंतर्मन संवेदनाओं की सौन्दर्य सृष्टि भी है। सहजस्फूर्त रेखाओं के उजास में उनके कलाकर्म की रंगांकन पद्धति, सामग्री में निहित रेखाओं की आंतरिक प्रेरणा सहज अनुभूत की जा सकती है।
कविता से चित्रकर्म की यात्रा का उनका यह संवाद भी तो न भूलने वाला है, ‘मेरे जीवन की भोर गीतों भरी थी, चाहता हूं सांझ रंग भरी हो जाए।’ यह रवींद्रनाथ ही हैं जिनके गीतों की भोर भीतर से हमें जगाती है तो चित्रों का उनका लोक सुरमयी सांझ में सदा ही सुहाता है। रवींद्रनाथ के चित्रों में पोस्टर रंगों, पेड़ों की पत्तियों और फूलों की पंखुडिय़ों के रस के साथ ही पानी में घुलने वाले और दूसरे प्राकृतिक रंगों का आच्छादन, उत्सव लोक भी अलग से ध्यान खींचता है। एक व्यक्ति में कला के कितने-कितने रंग-रूप हो सकते हैं, यह भी तो रवींद्रनाथ के ही व्यक्तित्व में है। नहीं!