चुनाव नतीजों ने ईवीएम की विश्वसनीयता को कठघरे में खड़ा कर दिया है। लेकिन नतीजों में सबसे अधिक चौंकाने वाली बात रही मंत्रियों और विधायकों के खिलाफ उपजा विरोध। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री हरीश रावत दो जगह से चुनाव लड़े लेकिन उन्हें दोनों जगह से हार का सामना करना पड़ा।
गोवा के मुख्यमंत्री लक्ष्मीकांत पारसेकर को भी शिकस्त का सामना करना पड़ा। पांच राज्यों में सत्तारूढ़ दल के अधिकांश मंत्री और विधायक विधानसभा तक पहुंचने में विफल रहे। उत्तर प्रदेश की अखिलेश सरकार रही हो या पंजाब की प्रकाश सिंह बादल सरकार इनके अधिकांश मंत्रियों को हार झेलनी पड़ी।
सत्तारूढ़ दल के अधिकांश विधायक भी दुबारा जीतने में विफल रहे। ये सभी राजनीतिक दलों के लिए विचारणीय सवाल होना चाहिए कि ये प्रवृत्ति बढ़ती क्यों जा रही है? सत्तारूढ़ दल के विधायक मतदाताओं की अपेक्षाओं पर खरा क्यों नहीं उतर पाते? रावत और पारसेकर मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए चुनाव नहीं जीत पाए।
चुनावी नतीजों की समीक्षा करते समय इस बात पर चिंतन होना चाहिए। शायद यही देखकर भारतीय जनता पार्टी ने दिल्ली नगर निगम चुनाव में वर्तमान पार्षदों को टिकट नहीं देने का फैसला किया है। पार्टी को आशंका लगती है कि पुराने चेहरों पर दांव खेलना उसके लिए भारी पड़ सकता है।
‘निर्वाचित’ प्रतिनिधियों के बारे में मतदाताओं का ये आकलन उनकी कार्यशैली पर भी सवाल खड़े करता है। इसका सीधा-सा मतलब यही निकलता है कि चुनाव जीतने के बाद जनप्रतिनिधि मतदाताओं के संपर्क में नहीं रहते। चुनाव से पहले लम्बे-चौड़े वादे करने वाले जनप्रतिनिधि बाद में सत्ता की जोड़-तोड़ में मशगूल हो जाते हैं और जनता से कट जाते हैं।
एक दौर था जब संसद से लेकर विधानसभाओं में लगातार जीतकर आने वाले जनप्रतिनिधियों की तादाद बड़ी संख्या में होती थी। अब हालात बदल रहे हैं तो इसका अर्थ आसानी से समझा जा सकता है।
सांसद, विधायक अथवा पार्षदों के टिकट काटने की नौबत ना आए इसके लिए जनप्रतिनिधियों को अपनी कार्यशैली और आचरण में सुधार करने की जरूरत है।