इसे क्या माना जाए? पुलिस की लापरवाही अथवा नई सरकार के साथ कदमताल की मजबूरी? कारण चाहे एक हो अथवा दोनों लेकिन पुलिस का ये रवैया अनुचित है। इसलिए क्योंकि कानून व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी पुलिस पर है।
पुलिस की नजर मनचलों पर अब पड़ रही है तो क्या पिछली सरकार ने मनचलों पर नकेल नहीं कसने को कह रखा था। उत्तर प्रदेश पुलिस के कामकाज में आया ये बदलाव स्थायी तो नहीं माना जा सकता।
नई सरकार है तो पुलिस भी बदली-बदली नजर आना चाहती है। आमजन भी यही मानता है कि ये दिखावा चंद दिनों का है। दिन बीतेंगे और पुलिस अपने तरीके से काम करने लगेगी। बात उत्तर प्रदेश की ही नहीं समूचे देश की है। पुलिस और प्रशासन को सरकारें बदलते ही अपने व्यवहार को बदलने की नौबत आए ही क्यों? ये सवाल उन तमाम राजनीतिक दलों के लिए भी है जो कानून को अपने तरीके से काम करने देने की बात तो कहते हैं लेकिन उस पर अपनी सोच थोपने से भी बाज नहीं आते।
बात चाहे भाजपा राज की हो, कांग्रेस राज की या तृणमूल कांग्रेस की। पुलिस प्रशासन का इस्तेमाल हर सरकारें अपने-अपने तरीके से करती आई हैं। उत्तर प्रदेश की पुलिस ने पूर्व मंत्री गायत्री प्रजापति को सरकार बदलते ही पकड़ लिया।
सरकार समाजवादी पार्टी की थी तो पुलिस को प्रजापति एक महीने तक नजर ही नहीं आए। अपने क्षेत्र में मतदाताओं से वोट मांगते और वोट डालते पूरी दुनिया ने उन्हें देखा लेकिन पुलिस इसे नहीं देख पाई।
पुलिस के इस आचरण को बदलने की जरूरत है। ये आचरण तब बदलेगा जब उसे काम करने की पूरी आजादी दी जाएगी। अन्यथा सरकारें बदलते ही पुलिस प्रशासन अपने चेहरे को चमकाते नजर आएंगे लेकिन इसका फायदा जनता को मिलने वाला नहीं। जनता में पुलिस के प्रति विश्वास तभी पैदा होगा जब वह आमजन के हित में काम करती नजर आएगी।