वे 2014 में राजनीति में आए। उससे पहले राजनीति से उनका कोई लेना-देना नहीं था। वे उन राजनेताओं में से नहीं हैं जो किसी भी जोड़-तोड़ से काम करना चाहते हैं। वास्तविकता यही है कि वे मूलत: खिलाड़ी हैं, सैनिक हैं। यह उनका वास्तविक कवच है, जिसे उन्होंने उतारा नहीं है। वे अपने अनुशासन के साथ ही राजनीति में आगे बढऩा चाहते हैं। मंत्री बनने के बाद काम करते हुए उन्हें नजदीक से देखा है। वे राजनेता नहीं, बल्कि अनुशासित प्रशासक की तरह निश्चित समय पर मंत्रालय पहुंचते हैं। लोगों से मिलते हैं, बैठकें करते हैं, फिर उन्हें जो ठीक लगता है उसे योजनाबद्ध तरीके से क्रियान्वित करने की कोशिश करते हैं।
उन्होंने अनुशासन को छोड़ा नहीं है बल्कि उसे पूरी शिद्दत से जोडक़र रखा है इसीलिएवे मंत्रिमंडल के उन लोगों मेंं शुमार होते हैं, जिन्होंने अपने काम की छाप छोड़ी है। हमारे देश में खेल मंत्री के पद को विशेष महत्ता नहीं मिलती है। मंत्रालय का बजट भी करीब दो हजार करोड़ रुपए का ही होता है। लेकिन राज्यवर्धन सिंह ने खेल मंत्री रहते साबित किया है कि यदि काबिलियत है तो छोटा कहा जाना वाला कार्यभार भी महत्त्वपूर्ण बनाया जा सकता है। कहा तो यह भी जाता है कि एक खिलाड़ी प्रशासनिक तंत्र नहीं संभाल सकता। लेकिन ऐसा कहने वालों को उन्होंने गलत साबित किया है।
उन्होंने खिलाडिय़ों के लिए कई योजनाएं शुरू की हैं, जिनके परिणाम बाद में दिखेंगे। पिछले दिनों खेलो इंडिया का कामयाब आयोजन इसी का उदाहरण है। यह बात जरूर है कि जल्दबाजी में दिखते हैं, लेकिन उनमें हड़बड़ाहट बिल्कुल नहीं है। यही वजह है कि उन्हें पदोन्नति मिली है। उन्हें सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय का स्वतंत्र कार्यभार मिला है। यह सही है कि आज सरकारी मीडिया विशेष तौर पर आकाशवाणी और दूरदर्शन पिछड़़ते दिखते हैं, लेकिन सिंह में वह जज्बा है कि अनुशासित कार्यशैली से स्थितियों में तेजी से सुधार कर पाएंगे।