उच्चतम न्यायालय की इस बेंच के एक न्यायाधीश शरद अरविन्द बोबडे ने सुनवाई के दौरान यहां तक कहा कि यदि इस मामले को बातचीत से सुलझाने की एक प्रतिशत भी संभावना हो तो उसे खोजा जाना चाहिए। उनका कहना था कि यह केस निजी संपत्ति के मालिकाना हक का नहीं है। यह दो समुदायों के बीच रिश्तों का है। इन रिश्तों के घावों को भरने की संभावना खोजी जानी चाहिए। इलाहाबाद ने भी सितंबर 2010 में समझौतावादी रुख को अपनाते हुए दो-एक के बहुमत से कानूनी प्रक्रिया से आगे बढ़ कर निर्णय दिया था कि विवादास्पद भूमि तीन भागों में बांट दी जाए। एक तिहाई भाग रामलला विराजमान के लिए अखिल भारतीय हिन्दू महासभा को, एक तिहाई भाग सुन्नी वक्फ बोर्ड को और शेष भूमि निर्मोही अखाड़े को दे दी जाए। परन्तु इससे कोई राजी नहीं हुआ।
अयोध्या में रामजन्मभूमि के मामले को अदालतों से बाहर बातचीत से हल करने की कोशिशें तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह और बाद में प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के समय हुईं और लगा था कि समझौता होने को है मगर कुछ सकारात्मक परिणाम नहीं निकल सका। उच्चतम न्यायालय पर सबको भरोसा है इसीलिए सभी पक्ष उसी से निर्णय चाहते हैं। यदि उसकी निगरानी में गोपनीयता बरतते हुए सभी पक्षों में शांत माहौल में बातचीत होती है तो शायद बात बन जाए क्योंकि उसमें किसी की जीत या हार नहीं होगी। क्योंकि आस्था के मुद्दों पर अदालतों के कानूनी निर्णय लागू करवाना अक्सर असंभव होता है। इसीलिए शीर्ष अदालत ने एक नया रास्ता सुझाया है, जिस पर सभी पक्षों को धैर्य से विचार करना चाहिए। आस्था जब उन्माद बन जाती है, तब विवेक साथ नहीं देता। आज जरूरत है, ऐसे विवेक की, जिसके जरिये अयोध्या मुद्दे का हल यदि बातचीत से निकलने की अंशमात्र भी गुंजाइश हो, तो उसे एक मौका दिया जाना चाहिए।