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राजा तो केवल राम…

Published: Mar 28, 2015 01:38:00 am

मनुष्य प्राकृतिक प्राणी है। शरीर से मानव है, भीतर से कहीं पशु भी है। शरीर उसको कर्म करने तथा पिछले कर्मो के फल



गुलाब कोठारी पत्रिका समूह के प्रधान संपादक

मनुष्य प्राकृतिक प्राणी है। शरीर से मानव है, भीतर से कहीं पशु भी है। शरीर उसको कर्म करने तथा पिछले कर्मो के फल भोगने के लिए मिलता है। फलों की इसी छाया में उसका अज्ञान-अवतार होता है। वह अपने चारों ओर अज्ञान का वातावरण ही देखता है। उसी में अपने ऋणानुबन्ध चुकाता है तथा वातावरण में अपने मन की जिज्ञासाओं के उत्तर ढूंढ़ता है। किसी को देखकर उसके मन में प्रतिक्रिया होती है। कहीं मन श्रद्धा से नत हो जाता है। श्रद्धा उसका पथ प्रदर्शन करती है। वह पुन: वहीं लौटना चाहता है। ये उसके “अनवद्य कर्म” होते हैं। लोक संग्रह के प्रतिनिधि कर्म कहलाते हैं। उसके विपरीत कर्म, निन्द्य कर्म कहे जाते हैं। माता-पिता एवं गुरू अनवद्य कर्म के प्रतिनिधि कहे गए हैं। ये लोक संरक्षण के लिए जाने जाते हैं। इनको बच्चे पुस्तकों की तरह पढ़ते हैं। इनके जैसा ही आचरण करना चाहते हैं।

शिक्षा समाप्ति के बाद शिक्षक भी छात्र से यही कहता है कि “मेरे अनवद्य कर्मो का ही सेवन करना। यही मेरा उपदेश है, यही मेरा आदेश है।” लोक संग्राहक अथवा आदर्शमय जीवन संघर्ष का साहस रखने वाला ही जी सकता है। राम इसे जी गए लेकिन रावण नहीं जी पाया। प्रारब्ध से राजा के घर में जन्म लेने से भी राजा तो बना जा सकता है किन्तु जन संरक्षक बनकर सभी कहां जी पाते हैं। तभी तो आज भी राम-राज्य की कल्पना जीवित है। कृष्ण-राज्य की कोई अवधारणा लोक में प्रचलित नहीं है। अवतार तो कृष्ण भी विष्णु के ही थे। हमारी लोकतन्त्र की अवधारणा के पीछे महात्मा गांधी की रामराज्य की कल्पना ही थी। अन्तिम समय भी उनके मुंह से राम ही निकला था। लोक में कहावत है-“रामादिवद् वर्तितव्यं न कश्चिद् रावणादिवद्”। आचरण, बरताव, व्यवहार राम जैसों का ही करना चाहिए, रावण जैसों का नहीं।

राम को जब चौदह वर्ष वनवास जाने का आदेश हुआ तो उनके चेहरे पर न हर्ष था, न ही विषाद का भाव। बेहोश पिता के लिए अवश्य कहा कि इनको तो संभाल लिया जाए। लेकिन, कैकेयी ने तुरन्त मना कर दिया कि तुम क्यों चाहते हो कि ये होश में आ जाएं? क्या वनवास जाने के आदेश को बदलवाना चाहते हो? राम ने कहा-“रामो द्विर्नाभिभाषते।” अर्थात् राम दो बात नहीं कहता। अत: सत्यप्रिय होने से मैं वन जाऊंगा।

ईश्वर अवतार क्यों लेता है? भिन्न-भिन्न काल विशेष के अनुरूप लोकाचार के उदाहरण समाज के समक्ष रखते हैं। राम सीता के साथ 14 वर्ष वनवास में रहे। पाण्डव बारह वर्ष वन में, एक वर्ष अज्ञातवास में रहे। पूर्ण ब्रह्मचर्य में रहे। उस काल को अनुष्ठान माना। बिना पत्नी के कोई भी ऋषि उम्रभर ब्रह्मचारी रह सकता है। पत्नी के साथ, वन में ब्रह्मचारी रह पाना तो ऋषियों के लिए भी असंभव है। फिर राजाओं के लिए? इसीलिए सीता और द्रोपदी सती कहलाई हैं। दोनों नि:सन्तान ही लौटीं। आज तो सत्ताधारी पशुभाव से बाहर जीना सत्ता का अपमान मानते हैं। इसीलिए इतिहास उनको क्यों याद रखेगा!

आज सत्ताधीश स्वयं को लोक सेवक कहते हैं। जनता के कंधों पर पैर रखकर अपने लिए स्वर्ग का निर्माण करते हैं। राम लोक की सेवा नहीं आराधना (पूजा, उपासना, अर्चना) करते थे। ऎसा “उत्तररामचरितम्” में महाकवि भवभूति ने वर्णन किया है-

स्नेहं दयां च सौख्यं च
यदि वा जानकीमपि।
आराधनाय लोकस्य मु†चतो
नास्ति मे व्यथा //


राजा थे तो प्रजा के अन्तिम छोर तक का सम्मान करते थे। नीचे तक जुड़े थे। भवभूति कहते हैं कि राम अपने लोकाचार के प्रति इतने जागरूक थे कि उनके कर्तव्य मार्ग में कोई भी वस्तु बाधा नहीं बन सकती थी। चाहे कोई स्नेहमयी मूर्ति (व्यक्तित्व) हो या दया-करूणा। कोई अत्यन्त प्रिय या सुख देने वाली वस्तु भी उनको नहीं रोक सकती थी। यहां तक कि वे सीता को भी छोड़ सकते थे। जो उन्होंने करके भी दिखाया। सीता को जब वनवास भेजा, तब तो वह गर्भवती भी थीं। राम ने किसी प्रकार की दया का भाव व्यक्त नहीं किया। अर्थात् राम-राज्य में अन्तिम व्यक्ति की भी सुनवाई होती थी।

कृष्ण गणों के माध्यम से गणतन्त्र में रहे। राम यूं तो राजतन्त्र में थे, किन्तु जनता के प्रति अत्यन्त संवेदनशील थे। पं. नेहरू के लोकतन्त्र को देखकर गांधीजी ने कह दिया था कि रामराज्य नहीं आएगा। रामचरितमानस में तुलसीदास लिखते हैं-

वेद पुराण वसिष्ठ बखानहीं।
सुनहि राम जद्यपि सब जानहीं //

महर्षि वशिष्ठ बोलते थे तब राम सुनते थे। हालांकि वे सब कुछ जानते थे। ताकि उनको देखकर दूसरे लोग भी वशिष्ठ की बातों पर कान दें। आपको वह सब आचरण करके दिखाना चाहिए, जैसा आप लोक से अपेक्षा करते हैं। लोक में धर्म की स्थापना संकल्प रूप में व्याप्त हो जाए। जो अधर्म के वातावरण में धर्म का भाग छूटता जा रहा हो, उसकी पुन: स्थापना करना ही लोक संरक्षण का कार्य है।

लोक संरक्षण की दृष्टि से आदर्श पुरूष अथवा महापुरूष में चार बिन्दु प्रमुख होते हैं। पहला और मुख्य बिन्दु तो “नाम” ही है। लोक का प्रथम आकर्षण नाम में ही होता है। नाम का प्रभाव दूर बैठे व्यक्ति पर बिना आमने-सामने आए भी होता है। नाम में व्यक्तित्व रहता है, व्यक्तित्व की चुम्बकीय शक्तियां रहती हैं। राम-कृष्ण-महावीर-बौद्ध-ईसा जैसे महान् व्यक्तित्व आज भी नाम के कारण ही जाने जाते हैं। यह महात्मा गांधी का नाम ही था, जिसके साथ आजादी की जंग में पूरा देश जुड़ गया था। भला कितने लोगों ने उनको व्यक्तिश: देखा होगा! नाम का कितना प्रभाव होता है यह बात इसी तथ्य से समझी जा सकती है कि विश्व भर में महापुरूषों और अवतारों के नाम की मालाएं फेरी जाती हैं। नाम की महिमा से तो हमारे शास्त्र भरे हुए हैं। जनश्रुति है कि मरते समय रावण के मुंह से भी “राम” नाम ही निकला था।

प्रथम दृष्टि में जो प्रभाव व्यक्ति का पड़ता है, उसका कारण है-“रूप”। रूप में सुन्दरता का आधार है आभामण्डल। कोई चेहरा तभी सुन्दर लगता है, जब उसके भीतर से कान्ति प्रवाहित होती हो। कान्तिविहीन चेहरा श्ृंगार करके भी रूपवान नहीं लगता। वैसे नाम और रूप हटा दिए जाएं, तो सारे भेद स्वत: ही (स्थूल) समाप्त हो जाते हैं। मन्दिरों में जो झांकियां सजाई जाती हैं, उनका आधार रूप ही है।

स्तुति करने वालों का आकर्षण बना रहना, दिखाई देने के दृष्टि को बांधे रखना एकाग्रता की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। इसके बिना स्तुति में मन ही नहीं लगेगा। अनुसरण करते रहने के लिए यह रूप का आकर्षण नित्य ही बना रहना चाहिए। गांधीजी जब दक्षिण अफ्रीका से लौटे, तब सूट उतारकर धोती में आ गए। इसी लंगोटी वाले रूप ने उनके नाम के साथ महात्मा जोड़ दिया। गांधीजी को जितना जन समर्थन मिला, उसमें “महात्मा” शब्द की भी महती भूमिका रही। क्या सूट पहने हुए गांधी को इतना बड़ा जन समर्थन मिल सकता था?

राम और कृष्ण को नाम-रूप के साथ उनकी “लीला” भाव की अभिव्यक्ति से ही जाना जाता है। कृष्ण का सम्पूर्ण जीवन गतिमान रहा। लीलाओं का संग्रहालय ही था। गीता अर्जुन को सुनाई होगी किन्तु आज सम्पूर्ण विश्व सुन रहा है। कैसे कोई भूलेगा कृष्ण को? रावण के तो नाम और रूप अत्यन्त प्रभावशाली रहे होंगे। उसके लीला भाव के स्वरूप ने जन मानस में आसुरी छवि बना दी। असुर भी अवतार कोटि का ही था। अत: लोकसंग्रह की दृष्टि से रावण सर्वाधिक लोकप्रिय नाम है जो बुराई से बचने के लिए डराने के काम आता है-“ऎसा मत करना, रावण उठाकर ले जाएगा।”

लीला भाव संस्कारों का अंग होता है। लंगोटी पहनकर संघ का प्रचार करने वाले प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने जब दस लाख रूपए का सूट पहना तो देश में तीखी प्रतिक्रिया हुई। महात्मा गांधी के साथ ऎसा नहीं हुआ। अपूर्व जनसमर्थन मिलता ही चला गया। त्याग का प्रभाव, आकर्षण तथा नीयत ही व्यक्ति को आदर्श बनाते हैं। इसी संदर्भ में गांधीजी ने अपना धाम-साबरमती भी नहीं छोड़ा।


गांधीजी का सपना राम-राज्य था। किन्तु वह हिन्दुवादी राम-राज्य नहीं था। उनका लोकप्रिय भजन था-रघुपति राघव राजाराम, पतितपावन सीताराम H इस देश ने किसी को भी राजा नहीं माना। केवल वही राजा बन पाया जो धर्म की मर्यादा से सुशोभित रहा अर्थात् राजा राम। कृष्ण नहीं, बुद्ध नहीं। राम के बाद दूसरे नाम स्वीकार हुए-धर्मराज युधिष्ठिर और राजा विक्रमादित्य। शेष राजा इतिहास के पन्नों में खो गए। जिस प्रकार 67 वर्ष बाद हमारे लोकतन्त्र में राम-राज्य का सपना खो गया। गांधीजी का लोक संग्रह
का उद्घोष-“वैष्णव जन तो तेने कहिए, पीर पराई जाने रे।” भी हिन्दुवादी मुखौटों के पीछे खो गया।



जन-जन सीखे राम से

स्वामी रामनरेशाचार्य रामानंद संप्रदाय के पीठाधीश्वर
नैसर्गिक रूप से हर जीव को विकास की इच्छा प्राप्त है। जितने संस्कार हैं, जितने संसाधन हैं, हर कोई उसी के अनुरूप विकास की चेष्टा करता है। जैसे संसार अनादि है, ठीक उसी तरह से विकास की इच्छा और विकास के प्रयास भी अनादि हैं। सनातन धर्म में जब यह विचार किया जाता है कि ब्रह्म किसे कहते हैं, तो यही बताया जाता है कि जो विकासशील हो और महान हो, उसी को ब्रह्म कहते हैं। हम सभी उसी ब्रह्म के अंश हैं। ब्रह्म में सतत विकासशीलता है, विकास को साकार करने की प्रयत्नशीलता है, यह सिद्ध करता है कि जो गुण ब्रह्म में है, वह हममे भी है। रावण ने भी विकास के लिए प्रयास किया था, लेकिन उससे दो गलतियां हो गई। पहली, उसके विकास का उद्देश्य गलत हो गया और दूसरी, विकास की रूचि भी गड़बड़ हो गई।

राम जी ने दोनों ही पद्धतियों को संभाला, सम्पूर्ण संसार को उज्वल चरित्र प्रदान किया। विकास के लिए जो तरीका होना चाहिए, वह शास्त्रों द्वारा नियंत्रित और प्रेरित होना चाहिए। राष्ट्र, जाति, परिवार, समाज की जो शास्त्रीय व्यवस्था है, उससे जुड़कर ही विकास हो। रामराज्य में सभी व्यवस्थाएं शास्त्रों के जरिए ही होती हैं। स्पष्ट है, मनमाने विकास के लिए जो प्रयास करेगा, वह भटक जाएगा। वह न अपने लिए कारगर हो पाएगा, न जाति, परिवार, समाज के लिए विकसित हो पाएगा, इसलिए अपने यहां यह बात बार-बार दोहराई जाती है कि जो भी आप प्रयास करें, शास्त्रों-पुराणों से पूछकर-देखकर करें। धनवान होना है, तो जरूरी नहीं कि घूस खाकर, चोरी करके, लंपट होकर, ठगी करके, गलत काम करके ही आप धनवान हों। शास्त्रों में धनवान होने की भी एक प्रक्रिया है। सही माध्यमों-साधनों से ही व्यक्ति को धन अर्जन करना चाहिए।

विकास और राम

राम जी वेदों के सबसे बड़े प्रवर्तक हैं। वेद उनकी सांसों में बसे हैं। ईश्वर ने सृष्टि के विकास के लिए ही वेदों को प्रकट किया। जब ईश्वर का अवतार राम जी के रूप में हुआ, तब उन्होंने वेद प्रेरित विकास की सभी प्रक्रियाओं को अपने संपूर्ण जीवन में स्थापित किया। इस आधार पर परिवार, समाज, राष्ट्र का समग्र विकास प्रस्तुत किया। पूर्ण रूप से शास्त्रीय मर्यादा से नियंत्रित-संचालित होकर किया। उदाहरण प्रस्तुत हो गया कि विकास ऎसे भी हो सकता है। कहा जाता है, राम जी के काल में जीवन का कोई क्षेत्र ऎसा नहीं था, जो पूर्ण विकसित न हो, चाहे वह पारिवारिक जीवन हो, विद्या, बल या धन का क्षेत्र हो या सुंदरता का क्षेत्र हो, कहीं से विकास की कोई कमी नहीं थी। लिखा है तुलसीदास जी ने कि कुबेर भी अवध के राज-धन को देखकर लçज्जत हो जाता था। देवराज इन्द्र भी संकोच में रहते थे कि अयोध्या का ऎश्वर्य, विकास कितना अद्भुत है।

विकास कैसे होना चाहिए, इसके लिए क्या आज्ञा है शास्त्रों की, राम जी ने इसका वास्तविक जीवंत प्रयोग करके दिखाया और इसीलिए वे रामराज्य के संस्थापक हुए और रामराज्य दुनिया का सबसे विकसित राज्य कहलाया। वह विकास किसी एक संगठन या व्यक्ति का नहीं था, वह विकास सभी के लिए था। कोई आदमी किसी तरह से दुखी नहीं था, भोजन, आवास, वस्त्र इत्यादि लोगों के पास खूब थे। विकसित होने की सबसे सही प्रणाली का उपयोग रामजी ने किया।

हम सही रीति से विकसित होने का प्रयास करें। स्वयं में तमाम सुधार करके तमाम मर्यादाओं का पालन करके हम विकास करें, तो पूर्ण सुखी होने से हमें कौन रोक सकता है। आज लोग येन-केन-प्रकारेण गलत ढंग से विकसित होने का प्रयास कर रहे हैं। मांस खाकर लोग बलवान होने का प्रयास करते हैं, लेकिन शास्त्रों में लिखित सात्विक आहार खाकर भी पहलवान हुआ जा सकता है। इतिहास साक्षी है, इस देश में तमाम लोग हुए जो पूर्ण शाकाहारी थे। अपने यहां हिन्द केसरी मंगला राय का नाम लिया जाता है, वो शाकाहारी थे और अपने समय में देश के सबसे बड़े पहलवान माने जाते थे। बुद्धि, ज्ञान, बल बढ़ाने के लिए ऋषियों, मुनियों, ज्ञानियों ने कभी भी किसी अभक्ष्य पदार्थ का सेवन नहीं किया।

संसार में सबसे बड़ा अवतार राम का है। सच्चे विकास की राममय पद्धति पर संसार को विश्वास करना चाहिए। आज ये क्या हो रहा है, कमाने, खाने, पहनने, सोचने का संयम नहीं है। पढ़ने का संयम भी विपरीत दिशा में चल रहा है, यह विकास सही नहीं है।
विकास किसके लिए?

लोगों को सही ज्ञान नहीं होने के कारण विकास की पूरी धारा भोग केन्द्रित होने लगी है। आज सबको मात्र इन्द्रीय भोग के लिए विकास चाहिए। ज्ञान, बल, धन सबकुछ भोग के लिए ही चाहिए। हमारे यहां अर्थ और काम को पुरूषार्थ तभी माना गया, जब वह धर्म के कार्य में उपयुक्त-प्रयुक्त हों। भोगवादी संस्कृति संसार की सबसे बड़ी समस्या है। सारी श्रेष्ठ मानवता, सारे अच्छे जीवन क्रम इससे प्रभावित हो रहे हैं। रामजी ने बताया कि विकास योग और मोक्ष के लिए है, भोग के लिए नहीं। वन में जाकर भी वे पूर्ण शांत हैं, पैरों में जूता नहीं है, तन पर अच्छे कपड़े नहीं हैं, खाने को पर्याप्त नहीं है, तब भी वे शांत हैं। आज सबसे जरूरी है कि शिक्षा और उसके उद्देश्य को सुधारा जाए। आज शिक्षा का उद्देश्य भी भोग बन गया है।

समन्वय के आदर्श राम
रामजी के समन्वय का स्वरूप जोरदार है। समन्वय में जो जितना बड़ा होता है, उसका लोकनायकत्व उतना ही बड़ा होता है। डॉक्टर गियर्सन कहा करते थे कि गोस्वामी तुलसीदास बड़े लोकनायक हैं, लेकिन राम सृष्टि के सबसे बड़े लोकनायक हैं। जबसे सृष्टि हुई, तभी से लोग समन्वय के लिए प्रयास कर रहे हैं। समन्वय से सफलता भी मिलती है और विकास भी आगे बढ़ता है। अपने अवतार काल में रामजी ने लोगों को जोड़ने का काम किया।

महर्षि विश्वामित्र और ब्रह्मर्षि वशिष्ठ तो दो धाराओं के गुरू-महात्मा थे, लेकिन राम जी दोनों के शिष्य रहे। दोनों ऋषि लंबे समय तक आपस में लड़ते रहे थे। रामजी ने अपने अवतार काल में अपनी विलक्षण बुद्धि, व्यवहार, प्रेम और उदारता से दोनों ऋषियों या अपने गुरूओं को परस्पर मिला दिया। एक क्षत्रिय और दूसरा ब्राह्मण, दोनों के जीवन में जो रस उत्पन्न हुआ, वह रामजी के आने के कारण ही हुआ। रामजी ने सेतु बना दिया।


रामजी ने कैकयी और कौशल्या को भी मिला दिया। रामजी जहां जाते हैं, लोगों को मिलाते हैं। जीव भेद, जाति भेद को निरर्थक सिद्ध कर दिया। सभी लोगों को उन्होंने अपने गले से लगाया। केवट प्रसंग में भी उनका समन्वयक स्वरूप चरम पर दिखता है। उन्होंने लंका और अयोध्या को मिला दिया। अयोध्या वह है, जहां सबको खुश करने का प्रयास किया जाता है और लंका वह है, जहां सबको रूलाने का प्रयास किया जाता है। भगवान की दया से राम जी ने लंका का वातावरण अपने चरित्र और व्यवहार से सुधार दिया। निचली जातियों के सदस्य भी मुख्यधारा के सम्मानित और मर्यादित सदस्य बन गए।

सबरी कभी भी वशिष्ठ या विश्वामित्र जैसी नहीं हो सकती, लेकिन जैसे अन्य ऋषियों का सम्मान किया रामजी ने, ठीक उसी तरह से सबरी का भी किया। राम जी लड़ गए होते राज्य के लिए भरत से, तो रामराज्य कतई संभव नहीं होता। राम के मन में भरत के लिए कोई दुर्भाव नहीं है। संपूर्ण संसार राम राम जपता है, लेकिन रामजी भरत-भरत जपते हैं। यही समन्वय का भाव है। भले हमें जाना पड़ा जंगल, लेकिन भरत हमारा लाडला है, भाई है, उसके प्रति कैसा दुर्भाव। ऎसी ही पवित्र स्नेही भावनाओं से रामराज्य का विकास हुआ। राम जी ने सबको जोड़ा, उनसे सभी को प्रेरणा लेनी चाहिए।

सब राम से प्रेरित हों

अभी हमें जो आनंद मिल रहा है, वह बहुत छोटा आनंद है, रामराज्य और राम पद्धति से सही और बड़े आनंद की प्राप्ति हो सकती है। जीवन पूर्ण विकसित हों, पूर्ण आनंदित हों, सभी समस्याओं का समाधान हो जाए, जिन चीजों से हमें दुख हो रहा है, उनका अंत हो। किसी एक धर्म के लोग नहीं, बल्कि संपूर्ण मानवता राम से प्रेरित हो। सही मूल्यों का धर्म से क्या लेना-देना। अच्छे मूल्य तो सभी धर्मो और सभी जातियों के लिए हैं, जैसे ऑक्सीजन सभी के लिए है, जैसे सूर्य का प्रकाश सबके लिए है, ठीक उसी तरह से राम की महानता भी सभी के लिए है। संसार की सभी समस्याओं का जब भी समाधान होगा, रामभाव से ही होगा। राम पहले भी प्रासंगिक थे, आज भी हैं और सदा रहेंगे।
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