Travelogue: रणथम्भौर में देखें हुत्काह, पिट्टा और जंगली भालू भी!
जंगल में कब क्या दिखे वो तो तय नहीं किया जा सकता पर जंगल में पहुंचना कैसे आसान और सुखद बनाया जाए, यह तो तय किया जा सकता है।
Published: June 19, 2022 10:16:54 pm
तृप्ति पांडेय
पर्यटन और संस्कृति विशेषज्ञ इस बार यात्रा अनुभव 13 जून को रणथम्भौर नेशनल पार्क में सुबह की सफारी का है। पहली बार भरी गर्मी में यहां आना तय किया इसलिए क्योंकि परिवार के कुछ लोगों को मैंने यहां एक दिन की यात्रा भेंट यानी गिफ्ट की थी। मुझे किसी खास अवसर पर गिफ्ट के तौर पर यात्रा या किताब से उसे यादगार बनाना अच्छा लगता है। चूंकि छुट्टियां हैं तो समय उपयुक्त था और यह मौसम बाघ-बघेरे देखने के लिए भी बहुत अच्छा माना जाता है। वन्यजीवों के इन दिनों में फिल्मांकन के लिए लंदन से एक टीम मार्च से डेरा डाले है तो हमारे देशी पर्यटक भी बड़ी संख्या में आ रहे हैं। वैसे भी रणथम्भौर नेशनल पार्क 30 जून को 30 सितम्बर तक के लिए बंद हो जाएगा।
हर आदमी यहां एक ही सवाल पूछता है - टाइगर देखा? पर मैंने अपनी दो सफारियों में टाइगर के अलावा बहुत कुछ देखा, कुछ पहली बार तो कुछ ऐसा जो मैं सबकी नजर में लाना चाहूंगी। तो पहली बार देखा पेंटेड स्परफाउल, जिसका हिंदी नाम है 'हुत्काह'। यह तीतर परिवार से आता है, कुछ गाइड इसे जंगली मुर्गी भी कहते हैं। बला का खूबसूरत है ये पक्षी। मोर की तरह इनमें भी नर, मादा से कहीं ज्यादा सुन्दर है। इसके नाम से ही रंग जुड़े हैं और सच में प्रकृति ने इसे कई रंगों से रंगा है। ये पक्षी मध्य भारत से ले कर दक्षिण भारत तक पथरीले और झाडिय़ों वाले इलाके में पाया जाता है। हमारे गाइड का कहना था कि ये पक्षी बहुत शर्मीला है और जरा-सी आवाज से भाग जाता है तो पक्षियों की तस्वीरें खींचने का शौक रखने वालों के लिए खास आकर्षण रखता है।
बरसात आने के समय के साथ यहां आ गया है नवरंग, जिसे 'पिट्टा' भी कहा जाता है। इन दिनों इसकी मीठी आवाज जंगल में गूंज रही है। इनके साथ लम्बी पूंछ वाली पैराडाइज फ्लाई कैचर और गोल्डन ओरियल भी आई हुई हैं, तो अपनी मस्ती में जगह-जगह नाचते नजर आते हैं मोर। मैंने दो जंगली भालू देखे जो कभी-कभार ही दिखते हैं। हां भई हां, मैंने बाघ भी देखा और खूब अच्छी तरह से खूब देर तक। पर मैं केवल बाघ देखने के लिए नेशनल पार्क आने वालों में से नहीं हूं जो बाघ दिखे तो इतने ख़ुश कि फिर कुछ नहीं देखते और जो बाघ नहीं दिखे तो इतने उदास कि फिर कुछ और देखना ही नहीं चाहते।
जंगल में कब क्या दिखे वो तो तय नहीं किया जा सकता पर जंगल में पहुंचना कैसे आसान और सुखद बनाया जाए, यह तो तय किया जा सकता है। पुणे का एक परिवार टिकट व्यवस्था को लेकर परेशान था तो सुबह गाड़ी का चालक जोन नम्बर के लिए घंटों तक कतार में खड़े रहने की कहानी सुना रहा था। जंगल कार्यालय का कम्प्यूटर भी नहीं चल रहा था। दूसरी तरफ, हमारा गाइड मोबाइल पर किसी से बहस कर रहा था कि जब पर्ची पर उसका नाम था तो किसी और से क्यों बदला जा रहा था।
अंदर की व्यवस्था को देख मैं सोच रही थी, ये दो बार टिकट चेकिंग का चक्कर क्यों? तकनीक के युग में आज कोई भी टिकट लेना और वेब चेकिंग सब इतना आसान है तब ये ऑनलाइन और ऑफलाइन का मकडज़ाल क्यों? क्यों जोन संख्या टिकट के साथ नहीं मिलती जैसे आप हवाई टिकट की सीट लेते हैं। अधिकारीगण खुद टिकट बुक कर के देखें तो जानें आखिर पर्यटक कितनी परेशानी से गुजरता है। अब वक्त आ गया है कि धड़धड़ाते पर्यटकों की शोर मचाती टुकड़ी को लेकर चलते कैंटर हटा कर छोटी इलेक्ट्रिक बसें लगाई जाएं। वैसे जिप्सी में भी 6 के स्थान पर 4 जने ही बैठने चाहिए और आगे गाइड। अक्टूबर तक तीन महीने में क्या इस व्यवस्था को सुधारने का काम नहीं किया जा सकता?

रणथम्भौर नेशनल पार्क में बाघ के साथ-साथ पेंटेड स्परफाउल और जंगली भालू भी हुए कैमरे में कैद।
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