प्रत्येक प्राणी ब्रह्म है और एक कामना लेकर पैदा होता है। यही कामना ही कर्म और कर्म फल का आधार भी है। श्रीमद भगवदगीता मे कहा गया कि सभी जीव अपनी स्वाभाविक प्रकृति के गुणों के कारण कार्य करने के लिए बाध्य होते हैं और कोई भी प्राणी एक क्षण के लिए भी अकर्मा नहीं रह सकता। संसार के सभी जीवों को भगवान की सृष्टि की व्यवस्था के अभिन्न अंग के रूप में अपने दायित्वों का निर्वाहन करना पड़ता है। जब हम भगवान के प्रति आभार व्यक्त करते हुए अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं तब ऐसे कर्म यज्ञ बन जाते हैं।
बनवारी शर्मा, जोधपुर
कर्म चाहे जैसा भी हो उसके कारण तो केवल पांच ही होते हैं । कर्मों का अंत ही वास्तव में मोक्ष है। स्वधर्म या नियत कर्म को करना साध्य की प्राप्ति के लिए आवश्यक है । संसार के सभी जीवो को कर्म तो करना ही होगा । हम केवल कर्मफल का त्याग कर सकते हैं । जीवित रहते कर्मों का त्याग करना भी संभव नहीं है । जो कर्म निष्काम भाव से ईश्वर के लिए जाते हैं वे बंधन नहीं उत्पन्न करते। वे मोक्षरूप परमपद की प्राप्ति में सहायक होते हैं। इस प्रकार कर्मफल तथा आसक्ति से रहित होकर ईश्वर के लिए कर्म करना वास्तविक रूप से कर्मयोग है।सुनील ओझा, जोधपुर
वर्तमान सामाजिक परिप्रेक्ष्य में कर्म के पांच कारण आलेख समाज को नई दिशा प्रदान करने में अत्यंत सहायक है क्योंकि आलेख में कर्म के कारण, मन और शरीर की गति, पूर्व सिंचित संस्कारों का हमारे कर्म पर प्रभाव और कर्म के अनुरूप प्राण की भूमिका पर स्पष्ट प्रभाव डालते हुए सत्कर्म करने की सीख दी गई है वर्तमान में मनुष्य को सही दिशा की आवश्यकता है ताकि वह सदाचारी और संस्कारी बनकर समाज को अपनी उपादेयता का अनुभव करवा सके और यह तभी संभव है जब उसके कर्म शुचिता पूर्ण होंगे।
सुधा आचार्य, साहित्यकार, बीकानेर
गीता में कहा गया है कर्म करते रहना चाहिए फल की इच्छा छोड़ देनी चाहिए। कर्म का कर्ता केवल आत्मा ही नहीं है। कर्म चाहे पुण्य का हो या पाप का उसके पांच कारण होते हैं। कर्म करने से हर व्य क्ति के बुदि्ध से कार्य करना चाहिए।
विनोद वैष्णव, पाली
भगवत गीता में कर्म प्रधानता पर जोर दिया गया है। यह सही है कि कर्म के सम्पादन के पांच गुण होते हैं। आत्मा ही हमारे कर्म की साक्षी होती है। आंतरिक और बाह्य कर्मों के प्रतिफल हमें प्राप्त होते हैं। अहंकार, मायाजाल और अज्ञानता के कारण हमें वह प्रतिबिंबित नहीं होते हैं। पूर्व संचित संस्कार भी कर्म प्रधानता से जुड़े हैं।
आर.पी.शास्त्री, अजमेर
वाक, पित्त, वायु, अग्नि, सोम सहित अन्य गुणों का सीधा संबंध कर्म प्रधानता से जुड़ा है। कार्य की सफलता, असफलता, परिश्रम, हाव-भाव का सारांश कर्मों से जुड़ा है। आधुनिक दौर में हम कर्म को सकारात्मक ऊर्जा से जोड़ सकते हैं। इसमें मनुष्य की आत्मा, पुरुषार्थ, विद्या, अविद्या, इंद्रियों का मिश्रण समाहित होता है। जीव की मुक्ति भी कर्म फल आधारित मानी जाती है। मानव जीवन चक्र कर्म प्रधानता के इर्द-गिर्द ही रहता है।
के.के.सिंह, अजमेर
आलेख में कर्म क्या है – इसके पाँच कारण क्या हैं और कर्म का अंत ( कृतांत) कैसे होगा इसके बारे में भारतीय वांगमय गीता के सांख्य और उपनिषद् से उदाहरण लेकर बहुत ही कुशलता से समझाया गया है। बंधन और मोक्ष क्या है और अविद्या की अवधारणा पर भी विचार किया गया है। बस लेख अगर और आसान भाषा में लिखा जाता तो आम पाठक के लिये अच्छा होता। लेख कहीं कहीं टूटता सा लगता है। इसे बहुत ही कुशल संपादन की आवश्यकता है।
रवींद्र नाथ झा, जयपुर
मानव जीवन कर्मों पर आधारित है। जो व्यक्ति जैसा कर्म करता है, उसे वैसा फल मिलता है। गीता भी भगवान श्रीकृष्ण ने यही संदेश दिया कि हमें केवल कर्मों पर ध्यान देना चाहिए, फल की इच्छा नहीं रखना चाहिए। अच्छे सोच और विचारों के साथ किए काम हमें पहचान और प्रसिद्धि दिलाते हैं, जबकि विकार और बुरे कर्मों से मनुष्य पाप का भोगी बनता है।
वैशाली कानूनगो, साहित्यकार, खरगोन
जीवन में कर्म ही सबसे महत्त्वपूर्ण है। भगवान श्रीकृष्ण ने भी कर्म करने का संदेश दिया है। व्यक्ति को फल की इच्छा न करते हुए कर्म करना चाहिए। आलेख लोगों का मार्गदर्शन करने वाला है। सच कहा है कि जब बहुत प्रयत्न करने पर भी कार्य सिद्ध नहीं होता है तो व्यक्ति निराश हो जाता है, लेकिन व्यक्ति को फल की इच्छा छोड़कर पुन: कर्म में जुट जाना चाहिए
कमल मतानी, दतिया
यह बात सही है कि दुनिया में कर्म को ही सबसे प्रधान माना गया है। व्यक्ति को लक्ष्य बनाकर सिर्फ अपना कर्म करना चाहिए। फल के बारे में सोचने की जरूरत नही है। अगर प्रयास सच्चे और सही होंगे तो सफलता मिलना तय है। कई बार देखा गया है कि बहुत प्रयास के बाद भी कोई काम नहीं हो पाता। इससे लोगों को निराश होने की जरूरत नहीं है बल्कि उसे फिर से पूरी हिम्मत से उस काम को करने का प्रयास करना चाहिए। एक दिन सफलता जरूर मिलेगी।
भोलाराम रघुवंशी, शिवपुरी
लेख में कर्म की प्रधानता को बताया है। उन्होंने सही बताया है कि कर्म से पहले उसे करने की इच्छा होती है और उस इच्छा की पूर्ति करनी है या नहीं इसका निर्णय बुद्धि लेती है। लेख में कर्म के अलग-अलग कारणों का विस्तार से बखान भी किया गया है। यह प्राणी को फल की चिंता किए बिना अपने कर्म को प्राथमिकता देने के लिए प्रेरित करने वाला है।
राम प्रसाद मिश्र, शहडोल
लेख में सत्य ही लिखा है कि कर्म योग के साथ फल की इच्छा छोड़ देनी चाहिए। नियति ही धर्म-अधर्म और संस्कार रूप में प्राणों के द्वारा स्पंदित होकर जीव के मन में अपने को प्रकट करती है। प्राण की स्पंदन क्रिया देह में संपादित होती है। प्राण द्वारा ही पूर्व जन्म के कर्म शरीर इंद्रिय और मन में देव रूप बीज से युक्त होकर फल रूप प्रकट होते हैं।
आशीष मुखर्जी, अनूपपुर
धर्म और कर्म के मर्म को भौतिक जीवन और पराशक्ति से पूर्ण ईश्वरीय विधान के विषय में लेख में बहुत ही सारगर्भित ढंग से प्रस्तुत किया गया है। इसमें व्याख्या के माध्यम से बताया गया है कि सांसारिक जीवन में आत्मा हमारे कर्मों के साक्षी भाव में माया ही सृष्टि का कारण है। इससे मुक्त होने के लिए मनुष्य को अपनी इंद्रियों को वश में करने की आवश्यकता है।
एसएस कुमरे, शिक्षा विभाग, सिवनी
हर मनुष्य की कामना होती है कि उसकी आत्मा जब देह त्यागे तब उसे मोक्ष की प्राप्ति हो। इसके लिए मन की तृप्ति बहुत जरूरी है। मनुष्य केवल लेने और प्रयास के पहले परिणाम को जानना चाहता है, उसके फल की प्राप्ति पर विचार करता है। इसके बाद कर्म करने की सोचता है। ऐसे में वह मोक्ष मार्ग प्रशस्त करने का प्रयास करना भूल जाता है। हां…बातों में इसका उल्लेख करता है, किंतु कर्म से उनका दूर-दूर से कोई नाता नहीं होता है। लेख में मोक्ष प्राप्ति और मनुष्य प्रवृत्ति का सुंदर वृत्तांत लिखा है।
एड.निर्मला नायक, जबलपुर हाईकोर्ट
हमारे धर्म शास्त्रों में भी कर्म को प्रधानता दी गई है। यही कारण है कि इंसान जन्म लेने के बाद अपने कर्म भाव को पूरा करने में जुट जाता है। ये बात अलग है कि उसके कर्म अच्छे या बुरे हो सकते हैं। ऐसा माना जाता है कि इन कर्मों से ही उसका अगला जन्म संवरता है।
गौरव उपाध्याय, ग्वालियर
लेख पढ़कर लगा जैसे अपने भीतर उतर रहे हैं। मुक्ति और मोक्ष का महीन अंतर समझने योग्य है। मूल बात जो है वह कर्म और कर्मफल है। कर्मरत रहना जीवन है, लेकिन कर्मफल की इच्छा एक तृष्णा समान है। जीव को निष्काम कर्म की ओर अग्रसर होना चाहिए। अध्यात्म यही कहता है कि बाहर नहीं, भीतर।
पंकज शर्मा, इंदौर
उपरोक्त लेख में कर्म सिद्धांत पर प्रकाश डाला गया है। कर्म तो बाद में होते हैं, पहले मन में इच्छा उत्पन्न होती है फिर विचार पुष्ट होता है जो कि सही और गलत भी हो सकता है। फिर मनुष्य अपनी अज्ञानता के कारण कर्ता भाव से कर्म करता है, यही अहंकार है। जब ज्ञान का उदय होता है तब मोक्ष प्राप्ति के लिए व्यक्ति निष्काम भाव से कर्म करता है और जन्म मरण के बंधन से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करता है।
मीरा भार्गव, कटनी
लेख में बहुत ही अच्छी बात बताई गई है आत्मा हमारे कर्मों का साक्षी भाव है, कारण नहीं है। माया ही सृष्टि का कारण है। चिर स्थिर आत्मा ही चंचल मन का आश्रय है। लेख में गीता का ज्ञान भी है।
श्याम ठाकुर, बुरहानपुर