scriptRealization of the power of folk language from Ramacharitmanas | रामचरितमानस से लोकभाषा की ताकत का अहसास | Patrika News

रामचरितमानस से लोकभाषा की ताकत का अहसास

Published: Jan 17, 2023 08:49:59 pm

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Patrika Desk

हिन्दी की बोली कही जाने वाली अवधी भाषा में लिखा गया रामचरित मानस इस बात का प्रमाण है कि अपनी भाषा में सामथ्र्य और सकारात्मकता से किया गया सार्थक सृजन सबके लिए स्तुत्य हो जाता है। तब, जब बाजारवाद के प्रभाव के कारण दुनिया भर में देशज भाषाएं संकट का सामना कर रही हैं, लोकभाषाओं के संरक्षण की प्रतिज्ञा के साथ गोस्वामी तुलसीदास का स्मरण बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाता है।

रामचरितमानस से लोकभाषा की ताकत का अहसास
रामचरितमानस से लोकभाषा की ताकत का अहसास
अतुल कनक
साहित्यकार और
लेखक

बिहार के शिक्षा मंत्री की रामचरितमानस पर की गई टिप्पणी से राजनीति तो गर्माई हुई ही है, इस मुद्दे ने एक बार फिर रामचरितमानस और गोस्वामी तुलसीदास के प्रति समाज के हर वर्ग में उत्सुकता जगाई है। तुलसीदास के नाम से भला कौन भारतीय परिचित नहीं होगा? रामचरितमानस के रूप में उन्होंने समाज को एक ऐसा अद्भुत ग्रंथ दिया है, जो न केवल भक्ति के नए प्रतिमान रचता है, बल्कि जीवन को हर एक कदम पर नीति और नैतिक साहस का संबल भी देता है। दुनिया के सौ सबसे लोकप्रिय गं्रथों में तुलसीदास द्वारा लिखे गए ग्रंथ रामचरितमानस को गिना जाता है। दुनिया में यह सुख कितने रचनाकारों को उपलब्ध होता है कि उनकी काव्यकृति के पारायण को एक पवित्र धार्मिक अनुष्ठान माना जाए। तुलसीदास ने अपनी शब्द साधना से इस गौरव को हासिल किया। तुलसीदास का जीवन इस बात का प्रमाण है कि व्यक्ति कठिन परिस्थितियों में भी यदि अपने धैर्य को धारण किए रखे और कर्म या साधना के प्रति अपनी निष्ठा को बनाए रखे, तो उस गौरव को प्राप्त कर सकता है, जिस गौरव के सम्मुख सदियां भी नतमस्तक हों। गोस्वामी तुलसीदास ने करीब चार सौ साल पहले, यानी वर्ष 1623 में संसार को विदा कहा था, लेकिन रामचरितमानस के रूप में अपने कालजयी सृजन के कारण वे आज भी जन-जन में जिंदा हैं।
तुलसी के जन्म स्थान और जन्म समय के बारे में अलग अलग मत हैं, लेकिन इस बात से कोई भी मत इनकार नहीं करता कि तुलसी का बचपन बहुत प्रतिकूल परिस्थितियों में गुजरा। अपनी पत्नी रत्नावली के उलाहने के बाद तुलसी सांसारिक जीवन से विरक्त हो गए थे। उस समय तक उनका गौना नहीं हुआ था। कहते हैं कि सन् 1574 के आसपास प्रयाग के माघ मेले से लौटने के बाद तुलसी के अंतस का कवि मुखर हुआ। तुलसी ने प्रारंभ में संस्कृत में काव्य रचना की। लोक बड़े ही विशिष्ट तरीके से इस बात को समझाता है कि कैसे शास्त्रीय भाषा में रचना करने को उद्यत हुए कवि का जुड़ाव लोकभाषा से हुआ। कहा जाता है कि तुलसी जो भी संस्कृत कविता लिखते, वह उनके सोने के बाद अचानक गायब हो जाती। तुलसी हैरान थे। मान्यता है कि इसके बाद एक बार स्वयं भगवान शंकर ने तुलसी को स्वप्न में आकर कहा कि वे लोकभाषा में रचना करें। इस सपने को देखने के बाद तुलसी गहरी नींद से उठकर बैठ गए। यदि तुलसी से जुड़ी इस मान्यता को लोक की कपोल कल्पना मान लिया जाए, तो भी यह मान्यता इस बात का प्रमाण है कि लोक अपनी भाषा के प्रति कितना संवेदनशील होता है और लोक भाषा के सार्थक सृजन को कितनी श्रद्धा से देखता है। जहां यह माना जाए कि स्वयं शंकर भगवान ने किसी महनीय कवि को लोकभाषा में सृजन की प्रेरणा दी, वहां लोकभाषा के महत्त्व का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है। यह लोकभाषा की शक्ति ही थी कि तुलसीकृत रामचरितमानस में कई प्रसंग वाल्मीकि कृत रामायण से अलग होने के बावजूद लोक ने उन्हें स्वीकार किया। कुछ संदर्भों में तो तुलसी रचित प्रसंग मूल रामायण के प्रसंगों से अधिक लोकप्रिय हो गए, बावजूद इसके कि तुलसी ने रामचरित मानस की रचना का आधार वाल्मीकि कृत रामायण को ही बनाया था। मसलन, वाल्मीकि रामायण में सीता के विवाह के लिए स्वयंवर के आयोजन का कोई उल्लेख नहीं है। लेकिन स्वयंवर के आयोजन के संदर्भ को तुलसी ने इतने रोचक तरीके से लिखा कि वही सर्वमान्य हो गया।
हिन्दी की बोली कही जाने वाली अवधी भाषा में लिखा गया रामचरित मानस इस बात का प्रमाण है कि अपनी भाषा में सामथ्र्य और सकारात्मकता से किया गया सार्थक सृजन सबके लिए स्तुत्य हो जाता है। तब, जब बाजारवाद के प्रभाव के कारण दुनिया भर में देशज भाषाएं संकट का सामना कर रही हैं, लोकभाषाओं के संरक्षण की प्रतिज्ञा के साथ गोस्वामी तुलसीदास का स्मरण बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाता है।
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