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धर्म और राजनीति बड़ी समस्याएं, स्वतंत्र चेतना गुम

Published: May 12, 2023 08:03:10 pm

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Patrika Desk

राजनीति और धर्म, अर्थ के साधन मात्र बन गए हैं। किसी भी देश समाज और समूह में होने वाली गड़बड़ी और अराजकता का मूल कारण प्राय: नागरिकों की उदासीनता, निष्क्रियता और राजनेताओं और धर्मगुरुओं के अंधानुकरण से निकली तात्कालिक उत्तेजना ही प्राय: होती है।

धर्म और राजनीति बड़ी समस्याएं, स्वतंत्र चेतना गुम
धर्म और राजनीति बड़ी समस्याएं, स्वतंत्र चेतना गुम
अनिल त्रिवेदी
गांधीवादी चिंतक और अभिभाषक

जीवन को शांति और समाधान देने वाले बुनियादी साधन ही मनुष्य समाज की सबसे बड़ी चुनौती या समस्या बन जाए, तो मनुष्य क्या करे? यह आज के काल का यक्ष प्रश्न है, जिसका उत्तर खोजना ही होगा। दुनिया भर में राजनीति और धर्म का जो स्वरूप बन चुका है, वह इंसान के लिए खुली चुनौती बन रहा है। समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया ने कहा था कि राजनीति अल्पकालीन धर्म है और धर्म दीर्घकालीन राजनीति है।
राजनीति और धर्म दोनों ही मनुष्य के सोच-विचार और आचार-व्यवहार को तेजस्वी, यशस्वी और पराक्रमी बनाने के बुनियादी साधन हैं। मनुष्य समाज की हर समस्या का समाधान निकालने का समाधानकारी मार्ग धर्म और राजनीति के पास सहजता से उपलब्ध है। इस वस्तुस्थिति के बाद भी आज की दुनिया में राजनीति और धर्म का स्वरूप ऐसा कैसे हो गया कि इन दोनों धाराओं ने मनुष्य जीवन और मन को अशांति और अंतहीन तनाव के दलदल में धकेल दिया है। आज की दुनिया की राजनीति में कभी-कभी विवाद इतने बढ़ जाते हैं कि कोई किसी की नहीं सुनता और अविवेकी, अंतहीन और नतीजा विहीन वाक्युद्ध छिड़ जाता है। धर्म में अशांति और संघर्ष का कोई स्थान नहीं है, फिर भी दुनिया भर में धर्म के नाम पर हिंसा होती ही रहती हैं। आध्यात्मिक अनुभूति का कहीं अता-पता नहीं है। राजनीति यानी लोगों को ताकतवर बनाने का अंतहीन सिलसिला। राजनीति का यह अर्थ पूरी तरह से बदल कर ताकतवर लोगों की नागरिक विरोधी मनमानी में बदल गया है। राजनीति नागरिक चेतना का एक महत्त्वपूर्ण रास्ता है, लेकिन अब यह रास्ता नागरिकों को असहाय और याचक बनाने की दिशा की तरफ ले जा रहा है। राजनीति और धर्म की कमान अर्थानुरागी राजनेताओं और तथाकथित या स्वयंभू अर्थ और चढ़ावा प्रेमी धर्मगुरुओं के हाथों तक ही सिमटती जा रही है। वैचारिक राजनीतिक नेतृत्व और आध्यात्मिक दृष्टि वाले संत खरमोर पक्षी की तरह लुप्त से हो रहे हैं। राजनीति और धर्म का मूल नेतृत्व नागरिकों के पास सहजता से होना ही चाहिए, लेकिन आज नागरिकों की भूमिका अंधे अनुयायियों या यंत्रवत कार्यकर्ताओं में बदल गई है। इस भूमिका परिवर्तन से राजनीति और धर्म का मूल स्वरूप ही बदल गया है।
राजनीति और धर्म, अर्थ के साधन मात्र बन गए हैं। किसी भी देश समाज और समूह में होने वाली गड़बड़ी और अराजकता का मूल कारण प्राय: नागरिकों की उदासीनता, निष्क्रियता और राजनेताओं और धर्मगुरुओं के अंधानुकरण से निकली तात्कालिक उत्तेजना ही प्राय: होती है। आजकल दुनियाभर में जितने भी देश, समाज और समूह हैं, वे सब कमोबेश राजनेताओं और धर्मगुरुओं के भरोसे हैं या उनकी कठपुतली की तरह हैं। इसी से दुनियाभर में नागरिकों और धर्मावलंबियों की दशा निष्क्रिय या उत्तेजित अविवेकी भीड़ की तरह हो गई है। ऐसा लगता है कि अब दुनिया के ज्यादातर देशों के नागरिक स्वतंत्र चेतना के वाहक नहीं रहे। नागरिकों को राजनीति और धर्म के इस स्वरूप से बगावत करनी चाहिए, पर दुनिया भर में प्राय: अधिकांश आबादी नागरिक की बजाय वैश्वीकरण के लाचार और बेबस दृष्टिहीन उपभोक्ताओं में बदलती जा रही है। उदारीकरण और भूमंडलीकरण ने दुनिया के लोगों की नागरिक आजादी को समाप्त कर दिया है। विडंबना यह है कि राष्ट्राध्यक्षों से ताकतवर तो भूमंडलीकरण के व्यापारिक प्रतिष्ठान होते जा रहे हैं। दुनिया भर के राष्ट्राध्यक्ष विकसित देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पास जाकर अपने-अपने देश को आर्थिक सहायता के नाम पर आर्थिक गुलाम बनाने का खुला निमंत्रण लेकर मारे-मारे घूमते नजर आते हैं।
दुनिया भर में राजनीति और धर्म अपनी सार्वभौमिकता को अपने ही हाथों समाप्त करते नजर आ रहे हैं। स्वतंत्र चेतना और चिंतन के साथ जीते रहने की प्राकृतिक जीवनशैली पिछड़ापन है , ऐसे विचार लोगों के अंतर्मन में कूट-कूट कर भर दिए गए हैं। तभी तो दुनिया भर में राजनीति की पहली पसंद युद्ध और हिंसा के आधुनिकतम हथियार हैं। नागरिकों के स्वतंत्र विचार गुम होते जा रहे हैं।
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