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धार्मिक पर्यटन को नई सूझ-बूझ की जरूरत

locationनई दिल्लीPublished: Jun 29, 2020 01:28:26 pm

Submitted by:

shailendra tiwari

धार्मिक पर्यटन के खाते में आने वाली ज्यादातर जगहों पर अभावों की एक लंबी फेहरिस्त है। कोरोना संकट के बीच यदि सुधार कार्यक्रमों को एजेंडे में नहीं लिया गया तो धार्मिक पर्यटन की सूरत शायद ही कभी बदले।

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डॉ. संजय वर्मा, टिप्पणीकार, निजी विवि में अध्यापन

कोरोना काल की जो पीड़ाएं इंसानों के लिए रहीं, उनसे धार्मिक कामकाज और ईश्वर के दरवाजे अछूते नहीं रहे। मंदिर, मस्जिद, गिरिजाघर , गुरुद्वारे अपने नियमित श्रद्धालुओं का सानिध्य ना पाकर सूने-सूने से रहे हैं। कई महीनों से भक्त-भगवान के मिलन की वेलाओं से वंचित श्रद्धालुओं को यह एक खबर राहत दे रही होगी कि एक जुलाई से उत्तराखंड के चारों धाम (केदारनाथ, बदरीनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री) कम से कम इस राज्य के निवासियों के लिए खुल जाएंगे। इसी तरह विदेश मंत्रालय से मिली यह सूचना भी उत्साहवर्धक है कि भगवान राम की जन्मस्थली अयोध्या को वेटिकन सिटी की तर्ज पर अंतरराष्ट्रीय धर्मनगरी जैसा विकसित किया जाएगा। यह मानते हुए कि देर सवेर कोरोना का तांडव थमेगा, धर्म स्थलों से लोगों के लगाव के फिर दर्शन होंगे। पर अब जबकि कहा जा रहा है कि यह सब कुछ नए कायदों के तहत होगा, धार्मिक पर्यटन को लेकर एक नई सूझ-बूझ और नजरिये की जरूरत हमारे देश में बन गई है।

मार्च-अप्रैल में कपाट खोले जाने के बाद हाल में (11 जून 2020) को उत्तराखंड के चारों प्रख्यात धर्मस्थलों पर सिर्फ स्थानीय निवासियों को दर्शन करने की छूट दी गई थी। लेकिन अभी यह छूट इस राज्य के लोगों को ही हासिल होगी। इसके बाद देश-दुनिया से आने वाले श्रद्धालु चारों धामों में दर्शन कर सकेंगे, बशर्ते सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों का वहां सख्ती से पालन कराया जाए और ये धर्म स्थल भक्ति के प्रसार का केंद्र ही बनें, संक्रमण का नहीं। कोरोना वायरस के प्रकोप ने पूरी दुनिया के धर्म स्थलों को विवश कर दिया है कि श्रद्धालुगण चाहे जितनी भक्ति दर्शाएं, भगवान और भक्त को सोशल डिस्टेंसिंग के कायदे मानने होंगे।

कई उदाहरण इसकी जरूरत साबित कर रहे हैं। जैसे, दिल्ली में तब्लीगी जमात से कोरोना के प्रसार का मामला आने के बाद पूरे देश में उसका असर दिखा। मुश्किलें दूसरे धर्मस्थलों और उनके मतावलंबियों के कारण भी आई। पंजाब के एक ग्रंथी बलदेव सिंह रागी अपनी कीर्तन मंडली लेकर इटली और जर्मनी गए, तो वहां से कोरोना लेकर आए और यह बात उन्होंने प्रशासन से छुपा ली। नतीजे में आनंदपुर साहिब में उनकी मंडली द्वारा होली के मौके पर आयोजित- होला मोहल्ला में आए श्रद्धालु प्रसाद में कोरोना लेकर लौटे और पूरे पंजाब में कोरोना के मामले बढ़ गए। इसी तरह लॉकडाउन के बीच रामनवमी के मौके पर यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अयोध्या में पूजा-अर्चना की तो सोशल डिस्टेंसिंग हवा हो गई।

बनारस का काशी विश्वनाथ मंदिर 20 मार्च तक खुला रहा और भक्त जमा होते रहे। पूरी दुनिया में यही सब कुछ दिखा। जैसे अमेरिका, ब्रिटेन, इटली, स्पेन, दक्षिण कोरिया और कई अन्य देशों में हर संडे को चर्च में लंबे समय तक मास प्रेयर होती रही और लोग कोरोना की चपेट में आते गए।

आस्थाओं को समझना हमेशा टेढ़ी खीर रहा है, इसलिए भक्त और भगवान के बीच कायम रहने वाली श्रद्धा पर टीका-टिप्पणी की बजाय यह देखने का प्रयास अब होना चाहिए कि क्या हम धार्मिकता या आध्यात्मिकता को पर्यटन से जोड़कर नई चुनौतियों के मद्देनजर धर्म को ज्यादा प्रासंगिकता प्रदान नहीं कर सकते हैं। भगवान राम की नगरी अयोध्या को वेटिकन सिटी की तर्ज पर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की धर्मनगरी के रूप में विकसित करने का विदेश मंत्रालय का सुझाव इस दिशा में एक अहम पहलकदमी हो सकता है। सुझाव के मुताबिक अयोध्या को ऐसी धर्मनगरी बनाने का विचार है, जहां भारतीय आध्यात्मिकता, संस्कृति, धार्मिक परम्पराओं के मूर्त और अमूर्त दोनों स्वरूप मौजूद रहेंगे। इसे रामायण और भगवान राम से जुड़ी पूरी विरासत को संजोने व प्रस्तुत करने वाली शास्त्रीय, लोक-जनजातीय और आधुनिक प्रदर्श व दृश्य कलाओं, साहित्य, बौद्धिक परंपराओं को समेटे अयोध्या देश-विदेश के पर्यटकों को आकर्षित करने वाला केंद्र भी बनाने की योजना है। यह असल में अयोध्या की ब्रांडिंग का प्रयास है, जिसमें राम की नगरी को वेटिकन सिटी जैसे दुनिया के अन्य प्रमुख धार्मिक शहरों की ही तरह भगवान राम और रामकथा से जुड़े हस्तशिल्प, स्मारक, रिप्लिका के हब के रूप में विकसित किया जाएगा और इसे एक ब्रांड बनाया जाए।

ऐसे कुछ प्रयासों की चर्चा एकाध मौकों पर उत्तराखंड के प्रख्यात चार धामों में से एक- केदारनाथ के बारे में भी उठ चुकी है। वर्ष 2013 में हुई बाढ़ की विनाशक त्रासदी के बाद कराए गए पुनर्निर्माण कार्यों के बाद केदारनाथ में लेज़र शो कराने और केदारपुरी में भगवान शिव की उपस्थिति के महत्व को दर्शाने वाले कार्यक्रमों के आयोजन से केदारनाथ को एक बड़े आध्यात्मिक ब्रांड के रूप में पेश करने की कोशिशें की गई हैं। इसके अलावा खास तौर से यूपी में वर्ष 2018 को योगी सरकार ने एक दस्तावेज जारी कर सवाल उठाया था कि जिस तरह हरिद्वार ‘पाप धोने’, वाराणसी ‘आध्यात्मिक मुक्ति’ दिलाने वाली जगह और ऋषिकेश अंतरराष्ट्रीय स्तर ध्यान, योग और साधना के अहम आध्यात्मिक केंद्र के रूप में विख्यात हैं, उसी तरह क्या अन्य तीर्थों की ब्रांडिंग नहीं हो सकती है। निस्संदेह इस विषय में सरकारी मंशाएं स्पष्ट हैं, पर समस्या यह है कि धार्मिक पर्यटन के खाते में आने वाली ज्यादातर जगहों पर ऐसे अभावों की एक लंबी फेहरिस्त है, जिन्हें अगर एजेंडे में लेकर सुधारा नहीं गया तो धार्मिक पर्यटन की सूरत शायद ही कभी बदले। यूं भारत को विभिन्न धर्मों और मतावलंबियों की मौजूदगी के कारण धर्मस्थलों का देश कहा जाता है पर इस उपाधि से जुड़ी विडंबना यह है कि हमारे ज्यादातर धर्मस्थल हर मामले में उपेक्षित ही रहे हैं। उनमें से कुछ को छोड़कर न तो वहां आने-जाने की उचित व्यवस्था की गई और ना ही तीर्थयात्रियों की सुख-सुविधा के वैसे इंतजाम किए गए, जैसे विदेशी टूरिस्टों के लिए किए जाते रहे हैं।

कोरोना काल में जब सारे पर्यटक स्थलों पर सन्नाटा छाया हुआ है, धर्मस्थलों को ‘आध्यात्मिक ब्रांड’ बनाने और उन्हें ‘ब्रांड इक्विटी’ के रूप में विकसित करने के कई फायदे हो सकते हैं। असल में यह बुरी तरह बिखरे और तमाम गड़बड़ियों और अनहोनियों के शिकार रहे तीर्थाटन को एक विकसित और व्यवस्थित धार्मिक पर्यटन के नए नजरिये में बदलने की बात है। वर्ष 2013 की त्रासदी के बाद इसे उत्तराखंड के चार धामों के संबंध में थोड़ा-बहुत समझा गया है। वहां सड़क, बिजली और रिहाइश के व्यवस्थित प्रबंध किए जा रहे हैं वैष्णों देवी ट्रस्ट (श्रीमाता वैष्णो देवी श्राइन बोर्ड) ने यह काफी हद तक कर दिखाया है कि कैसे श्रद्धालुओं की भीड़ संभाली जाती है, कैसे रास्ते में उनके खाने-पीने-चिकित्सा के प्रबंध हो सकते हैं और कैसे चढ़ावे के नाम पर लूट रोकी जा सकती है। धार्मिक पर्यटन के रूप में ब्रांडिंग का एक फायदा देसी रोजगार के असीमित मौके पैदा करने के संबंध में भी हो सकता है। उत्तराखंड की अर्थव्यवस्था टिकी ही चारधाम यात्रा पर है, लेकिन धार्मिक पर्यटन को अपने मुख्य एजेंडे में लाकर वित्तीय गड़बड़ियों और अन्य बीमारियों की रोकथाम के प्रयास नहीं किए गए, तो आस्था के मारे खिंचे चले आने वाले भक्तों से उस धर्मस्थल, राज्य और देश के विकास के लिए कोई आर्थिक योगदान की अपेक्षा करना भूल ही होगा।
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