डॉ. कृष्ण बिहारी मिश्र : आजीवन एकांत साहित्य साधना में रहे लीन
Published: Mar 16, 2023 09:37:28 pm
साहित्य मनीषी डॉ. कृष्ण बिहारी मिश्र को यदि विद्या, विनय और मनस्विता का विग्रह कहा जाए, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। वे ऐसे विरल रचनाकार थे, जिन्होंने उन मूल्यों को जीवन में जिया जिनको वे श्रेष्ठ मानते थे और जिनका विस्तार अपने रचना कर्म में करते रहे।


डॉ. कृष्ण बिहारी मिश्र : आजीवन एकांत साहित्य साधना में रहे लीन
गिरीश्वर मिश्र
पूर्व कुलपति, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विवि, वर्धा
साहित्य का मुख्य प्रयोजन सबको साथ लेकर चलना और सबका हित साधने का प्रयास भी होता है। अलग-अलग शैलियों में विभिन्न वादों के अनुगामी, कवि, लेखक और साहित्यकार भिन्न-भिन्न मत स्थापित करते रहते हैं, पर उनके भिन्न मुहावरों और शब्दावलियों के बावजूद अंतत: लोक-मंगल की ही बात उभर कर सामने आती है। इसकी व्यापक स्वीकृति होने के कारण इसे रचना में अंकित करना तो संभव हो जाता है, परंतु उसे जीवन में उतारना कठिन होता है। इसके लिए जिस आंतरिक दृढ़ता, सघन संलग्नता और तीव्र आध्यात्मिक समर्पण की जरूरत पड़ती है, वह आज के अर्थप्रधान और स्वार्थपरक दौर में अकल्पनीय होती जा रही है। साहित्य मनीषी डॉ. कृष्ण बिहारी मिश्र को यदि विद्या, विनय और मनस्विता का विग्रह कहा जाए, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। वे ऐसे विरल रचनाकार थे, जिन्होंने उन मूल्यों को जीवन में जिया जिनको वे श्रेष्ठ मानते थे और जिनका विस्तार अपने रचना कर्म में करते रहे।
बिना किसी तामझाम के डॉ. कृष्ण बिहारी मिश्र आजीवन एकांत साहित्य-साधना करते रहे और साहित्य जगत को बहुत कुछ दे गए। सहजता के लालित्य और सादगी की गरिमा से मंडित दुर्बल शरीर के साथ तेजस्वी आभा लिए, वे उन सबके प्रिय थे, जो कभी भी उनके स्निग्ध सम्पर्क में आए थे। उन्होंने कई कालजयी कृतियां दीं। उत्तर प्रदेश के धुर भोजपुरी क्षेत्र बलिया के गांव में जन्मे डॉ. मिश्र काशी हिंदू विश्वविद्यालय में अध्ययन के बाद कलकत्ता गए थे। वहां उनके अभिभावकों का अच्छा खासा पारिवारिक व्यवसाय था, पर विद्या-व्यसन की जो धुन उन पर सवार हुई हुई, तो वे उसी में रम गए। फिर उन्होंने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। अध्ययन, अध्यापन और अनुसंधान करते हुए कलकत्ता के बंगवासी मॉर्निंग कॉलेज में हिंदी के प्राध्यापक के रूप में जीवन व्यतीत किया। कलकत्ता में वे रम गए थे। कहीं और आना-जाना भी उन्हें अच्छा नहीं लगता था। कलकत्ता विश्वविद्यालय में पूरे हुए उनके शोध का विषय हिंदी भाषा की पत्रकारिता पर केंद्रित था। उनका शोध प्रबंध 'हिंदी पत्रकारिता: जातीय चेतना और खड़ी बोली साहित्य की निर्माण-भूमिÓ, भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुआ था। यह शोध पत्र मील का पत्थर बन गया। उन्होंने गणेश शंकर विद्यार्थी और पत्रकारिता: इतिहास और प्रश्न तथा सम्पादित ग्रन्थ हिंदी साहित्य : बंगीय भूमिका भी प्रकाशित किया, जो पत्रकारिता के अध्येताओं के लिए अपरिहार्य हैं। उन्होंने कहानियां भी लिखीं, परंतु उनकी प्रतिभा का सहज उन्मेष निबंध की विधा में हुआ। बेहया का जंगल, मकान उठ रहे हैं, आंगन की तलाश, अराजक उल्लास, गौरैया ससुराल गई जैसे ललित निबंध संग्रह और आस्था और मूल्यों का संक्रमण, आलोकपंथा, परंपरा का पुरुषार्थ, माटी महिमा का सनातन राग, न मेधया, भारत की जातीय पहचान : सनातन मूल्य जैसे वैचारिक निबंध संग्रह प्रांजल, प्रवाहपूर्ण और लोक-जीवन से सुवासित रचनाएं हैं। ये रचनाएं हिंदी गद्य की एक अलग छटा बिखेरती हैं, जिनमें लोकानुभव और समय- संवेदना दोनों ही मुखरित हैं। गांव घर के साथ गहरे जुड़ाव और नए परिवर्तनों की कसमसाहट और उद्विग्नता के साथ वे अपने निबंधों में एक किस्म के लोक रस का आविष्कार करते रहे। एक आत्मीय और उन्मुक्त लोक की सतत तलाश करते हुए मानुस भाव को स्थापित करना उनका मुख्य सरोकार था।
उनका संस्मरण संग्रह 'नेह के नाते अनेक' एक भिन्न शैली में जीवंत और आत्मीय होने के साथ अनेक महानुभावों की प्रामाणिक छवियों को उकेरता है। इनमें आए प्रसंग तत्कालीन साहित्य-संस्कृति और कला जगत से रूबरू कराते हैं। यूनू की 'भगवान बुद्ध' पुस्तक का अनुवाद भी उन्होंने किया। पंडित विद्यानिवास मिश्र के रचना कर्म पर केंद्रित 'परम्परा का पुरुषार्थ' उनकी महत्त्वपूर्ण समीक्षात्मक कृति है। 'कल्पतरु की उत्सव लीलाÓ रामकृष्ण परमहंस की जीवनी के रूप में अप्रतिम रचना है। ज्ञानपीठ का मूर्ति देवी पुरस्कार, उत्तर प्रदेश शासन का 'साहित्य भूषणÓ तथा महात्मा गांधी पुरस्कार, भारत सरकार से पद्मश्री तथा विद्या-श्री न्यास द्वारा विद्यानिवास मिश्र सम्मान से वे अलंकृत हुए थे। उनका रचा साहित्य हिंदी जगत की अमूल्य निधि है। उन जैसी भाषा और भाव की भंगिमा का स्वाद संजोना संस्कृति को प्राणवान बनाए रखने के लिए जरूरी है। छह मार्च की देर रात को उन्होंने अंतिम श्वास ली। इसके साथ ही हिंदी के अध्यवसाय की परम्परा का एक पाया नहीं रहा। लेकिन उनकी रचनाएं सभी के लिए अमूल्य धरोहर की तरह हैं।