scriptस्मृति शेष : परोपकार, तप और सेवा से फैली ‘कंचन’ सी आभा | Remaining Memory : Kanchan Devi Kothari | Patrika News

स्मृति शेष : परोपकार, तप और सेवा से फैली ‘कंचन’ सी आभा

locationजयपुरPublished: Nov 11, 2019 09:50:47 am

त्याग और ममता की साक्षात प्रतिमूर्ति कंचन देवी कोठारी का संपूर्ण जीवन परोपकार और सेवाभाव में बीता। मूर्धन्य पत्रकार कर्पूरचन्द्र कुलिश की धर्मपत्नी होने का गुमान उन्हें छू तक नहीं गया था। कंचन देवी ने अपने पारिवारिक दायित्वों का निर्वहन जिस तपस्वी भाव से किया वैसा विरले ही कर पाते हैं। सचमुच वे नाम के अनुरूप ही ‘कंचन’ थीं। वे किसी के लिए काकी-सा, किसी के लिए धाय-सा तो किसी के लिए चाचीजी और मम्मीजी थीं।

खुद कुलिश जी ने अपने आत्मकथ्य धाराप्रवाह में भी कहा है- ‘मेरी पत्नी आज एक तपस्विनी मानी जाती है। उसका आचार-विचार जैन धर्म के अनुसार होता है लेकिन अन्य परिजनों की मान्यताओं पर कुछ थोपना या बाधा देना नहीं चाहती। दीन-दुखियों की सेवा में वह हम सबसे बढ़कर है। मेरे परिवार की समाज में हैसियत के प्रभाव का उपयोग जनहित के काम में मेरी पत्नी खूब करती हैं।

त्याग और ममता की साक्षात प्रतिमूर्ति कंचन देवी कोठारी का संपूर्ण जीवन परोपकार और सेवाभाव में बीता। मूर्धन्य पत्रकार कर्पूरचन्द्र कुलिश की धर्मपत्नी होने का गुमान उन्हें छू तक नहीं गया था। कंचन देवी ने अपने पारिवारिक दायित्वों का निर्वहन जिस तपस्वी भाव से किया वैसा विरले ही कर पाते हैं। सचमुच वे नाम के अनुरूप ही ‘कंचन’ थीं। वे किसी के लिए काकी-सा, किसी के लिए धाय-सा तो किसी के लिए चाचीजी और मम्मीजी थीं।

राजस्थान पत्रिका समूह ने आज वटवृक्ष का रूप ले लिया है। लेकिन जब संस्थापक कर्पूरचन्द्र कुलिश इस समाचार पत्र की पौध लगा रहे थे, उससे कुछ साल पहले ही जयपुर जिले के छोटे से गांव गागरडू की कंचनदेवी कुलिश जी से परिणय सूत्र में बंधी थीं। वर्ष 1945 में कंचन देवी का विवाह हुआ। कर्पूरचन्द्र कुलिश ने 7 मार्च 1956 को राजस्थान पत्रिका की शुरुआत की थी। एक तरफ कुलिश जी की व्यस्तता और दूसरी तरफ कंचनदेवी पर आई पारिवारिक जिम्मेदारियां। खुद कुलिश जी के शब्दों में पत्रिका के रूप में 7 मार्च को एक संकल्प का जन्म हुआ था। यह संकल्प गिरते-संभलते आगे बढ़ता रहा। पत्रिका समूह की इस विकास यात्रा को बढ़ाने के लिए कुलिश जी देश-प्रदेश के भ्रमण में जुटे थे, तो कंचनदेवी उनकी सहधर्मिणी का दायित्व निभाने में। जब कंचन देवी से विवाह हुआ, उन दिनों कुलिश जी की काव्य जगत मेें ख्याति बढ़ रही थी। राजधानी जयपुर में होने वाली काव्य गोष्ठियों में उनकी नियमित भागीदारी रहने लगी थीं। वैवाहिक जीवन के इन शुरुआती दिनों में भी कंचन देवी कुलिश के रचना संसार में कभी बाधक नही बनीं।

राजस्थान पत्रिका की शुरुआत के बाद कुलिश जी की व्यस्तता और बढऩे लगीं थी। कुलिश जी का प्रभाव ही ऐसा था कि उनके घर बड़ी-बड़ी हस्तियों, राजनेताओं, पत्रकारों, लेखकों, कलाकारों और मित्रों व शुभचिंतकों का आना-जाना लगा ही रहता था। कुलिश जी से मिलने आने वालों के आतिथ्य का कंचन देेवी ने पूरा ख्याल रखा। वे जब तक सक्रिय रहीं, घर आने वाले को मनुहारपूर्वक भोजन कराती थीं। खुद भूखे रहकर जायकेदार भोजन बनाना उनका स्वाभाविक गुण था।

त्यागमयी रहा संपूर्ण जीवन
सेवा व परोपकार की साक्षात प्रतिमूर्ति श्रीमती कंचनदेवी कोठारी का संपूर्ण जीवन त्यागमयी रहा। गृहस्थ जीवन बिताते हुए भी उनका तपबल सराहनीय था। अपने जीवनकाल में पैंतीस साल तक एक दिन उपवास, एक दिन भोजन यानी एकांतर तप किया था। बीते पचास साल से उन्होंने नंगे पैर रहने का संकल्प ले रखा था। ऐसा संकल्प सचमुच कोई तपस्विनी ही ले सकती है। एक वक्त ऐसा भी था जब वे गहनों से लकदक रहती थीं। और, जब त्याग की राह थामी तो दो अंगूठी व दो चूडिय़ों के अलावा सभी तरह के गहनों को तिलांजलि दे दी। स्वस्थ रहने के दौरान वे अपने घर से चौड़ा रास्ता स्थित लाल भवन में दर्शनार्थ आती रहीं। जीवन में खूब पाया लेकिन किसी बात का अहंकार नहीं किया। खुद धर्मयात्रा करती थीं और दूसरों को भी धर्मयात्रा करवाकर पुण्य कमाती थीं। दान पुण्य के क्षेत्र में अग्रणी रहते हुए जहां भी जाती गुप्त रुप से दान करती थीं। नौ वर्ष से अस्वस्थ होने के कारण बिस्तर से भी उठने की स्थिति नहीं थीं। फिर भी नियमित साधु-साध्वियों की खबर फोन पर लेती रहीं।
(जैसा कि शीतलराज जी म.सा ने बताया)


माटी के प्रति था अटूट लगाव
राजधानी जयपुर से करीब 85 किलोमीटर दूर है गागरडू गांव। विवाह के उपरांत भी कंचन देवी का अपने पीहर गागरडू से निरंतर जुड़ाव रहा। समूचे गांव के लिए वे बुआसा थीं। आज गांव में स्कूल से लेकर अस्पताल तक और मंदिर से लेकर श्मशान तक में जो निर्माण कार्य दिख रहा है वह कंचन देवी की बदौलत ही है।

स्कूल में निर्माण कार्य : अपने पिता मदन सिंह कर्नावट की स्मृति में उन्होंने स्थानीय उच्च माध्यमिक विद्यालय में दो हॉल व पन्द्रह कमरों का निर्माण कराया। शिक्षकों के रहने के लिए विद्यालय परिसर में ही क्वार्टर बना दिए।

मंदिर निर्माण में भी आगे : गांव की प्राचीन बावड़ी की चार दीवारी निर्माण घाट निर्माण भी कंचनदेवी ने करवाया। बावड़ी के साथ ही बालाजी के मंदिर की भी स्थापना की और मंदिर निर्माण करवाया। हनुमान सागर बांध पर भी बालाजी का मंदिर बनाया।

श्मशान-धर्मशाला बनवाई :
गांव में कंचन देवी ने सार्वजनिक श्मशान बनवाया। गांव मेें धर्मशाला एवं खेल मैदान भी बनाया। दूरदराज से पढऩे गांव आने वाले बच्चों के लिए छात्रावास का भी निर्माण करवाया। कभी खुद गागरडू पहुंच जाती, तो कभी गांव से जयपुर आने वालों से गांव के बारे में पड़ताल करती रहती।

पाक कला में थीं निपुण
पाक कला में कंचन देवी कोठारी जितनी निपुण थीं उतनी ही खान-पान की मनुहार करने वाली भी थीं। उनके घर जो भी आता वह कंचन देवी के हाथों बनाए स्वादिष्ट भोजन का स्वाद जरूर लेता। ना-नुकर करने वालों से वे जिद कर लेती थीं कि घर आए हो तो बिना खाए नहीं जाना। परिवार में भी सबको इसके लिए ताकीद कर रखा था। घर में कंचन देवी के बनाए व्यंजनों का अलग ही स्वाद होता था।

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