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बीज की तरह रहे, वटवृक्ष बन गए

locationजयपुरPublished: Jun 14, 2019 09:01:15 am

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Gulab Kothari

आचार्यश्री महाप्रज्ञ जन्मशती वर्ष विशेष: समाज में जिस तरह से धन का, परिग्रह का, व्यसनों का और असत्य का वर्चस्व बढ़ रहा है, इसे देखकर महाप्रज्ञ जी की संवेदनशीलता और व्यक्तिगत प्रेरणा याद आते हैं, आगे भी याद आएंगे। कहीं स्मृति बनकर ही न रह जाए।

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एक साधारण व्यक्ति किसी असाधारण विभूति के बारे में क्या कह सकता है। आचार्यश्री महाप्रज्ञ उस समर्पित आत्मा का नाम है, जिनकी आत्मा में सदा आचार्य तुलसी ही तरंगित रहे हैं। उनके ही प्रतिबिम्ब को हम आचार्यश्री महाप्रज्ञ कहते हैं। इनका आधा शरीर आचार्य था और आधा शरीर महाश्रमण था। आत्म रूप में वो महाप्रज्ञ थे। व्यक्ति को भीतर से रूपान्तरित कर सकने की क्षमता आचार्य महाप्रज्ञ में देखी है। यह कार्य वही सद्पुरुष कर सकते हैं, जो प्राणों का आकलन करने में सिद्ध हो जाते हैं। उनका दृष्टिकोण समय और परिस्थिति के साथ बदलता नहीं है।

आचार्य महाप्रज्ञ के प्रेम और समर्पण ने ही इनके जीवन को गहनता प्रदान की है। जब भी आचार्य तुलसी ने कुछ कह दिया, वह तुरन्त इनके जीवन का अंग बन गया। न कोई प्रश्न, न कोई शंका। आप कह सकते हैं कि महाप्रज्ञ आचार्य तुलसी के अर्धांग बन गए थे। सदा ग्रहण करने की मुद्रा और स्वागत का भाव। शायद इसीलिए जो ईश्वरीय ज्ञान आचार्य तुलसी तक पहुंचा, वह सीधा का सीधा बहकर आचार्य महाप्रज्ञ तक आ गया। आचार्यश्री उसकी आगे वृद्धि करते ही गए। इन्होंने स्वयं को सदा गौण रखा। दोनों की एकरूपता जगजाहिर है। इसी से इनका अमन का मार्ग प्रशस्त हुआ। इसी से नए रूपान्तरण के प्रयोग कर पाए। भीतर की अनुभूतियां समृद्ध हो सकीं। तभी वे धर्म को वैज्ञानिक स्वरूप दे पाए। भगवान महावीर को वर्तमान जीवन शैली से जोड़ पाए। अहिंसा यात्रा के माध्यम से धर्म की अर्थवत्ता एवं सार्थकता सिद्ध कर गए। सबसे बड़ी बात चेतना से जुड़े विषयों को मानवीय संवेदना की भाषा दे गए।

मैं भी सौभाग्यशाली हूं कि मुझे आचार्यश्री का इतना सान्निध्य मिला। इनके मार्गदर्शन में प्रेक्षाध्यान के अनेक प्रयोग करने के अवसर मिले। हम आज भी अभेद ही हैं। आचार्यश्री ने मुझे कई बार कहा था कि मैं तुम्हें न पत्रकार मानता हूं, न ही कोई उद्योगपति। तुम एक निष्ठावान मानव हो, जो सिद्धान्तों पर चलता भी हो और डटा रहता हो।

गुरु का सम्मान बनाए रखना शिष्य की ही जिम्मेदारी होती है। अच्छे गुरु के शिष्य भी अच्छे ही होते हैं। हमारा संकल्प भी रहना चाहिए कि भविष्य में भी हम अच्छे ही रहेंगे। इनका सम्मान उत्तरोतर बढ़ता ही जाएगा।

विश्व पटल पर उनका प्रधान विषय था – अहिंसा। अहिंसा के प्रति आचार्य महाप्रज्ञ जी का स्पष्ट मत था कि ‘हिंसा छोडऩे से समाप्त नहीं होती, करने से भी समाप्त नहीं होती, केवल चेतना के जागरण से समाप्त होती है।’ उससे हिंसा का संस्कार समाप्त हो जाता है। न स्मृति रहती है, न ही घटना। क्योंकि हमारी भौतिकता के पीछे कोई ज्योति है जो निर्णय ले रही है। वही निर्णय बाहर तक पहुंचता है। भीतर हमारा अस्तित्व होता है – ‘मैं हूं’। बाहर व्यक्ति ‘मैं’ रहता है – जो बाहर ही देखता है। ‘हूं’ भीतर देखता है।

जिन संस्कारों के उदय से कोई हिंसा करता है, वह स्मृति हिंसा का मूल है। वही वास्तविक हिंसा है। क्रियात्मक हिंसा उतनी बड़ी नहीं होती। जो भी वर्तमान में हिंसा कर रहा है, उसके मन में हिंसा का संस्कार है। घटना तो परिणाम है। हमारी चेतना जैसे-जैसे जागृत होगी, हिंसा स्वत: समाप्त हो जाएगी। अहिंसा को गीता में शरीर का तप कहा गया है।

‘दैव द्विज प्राज्ञ पूजनम्, शौचम् आर्जवम्।
ब्रह्मचर्यम्, अहिंसा, च शरीरम् तप: उच्येते ॥’ 17/14

वास्तव में शरीर तो तप का माध्यम होता है, इसकी शुरुआत तो मन से होती है। प्राण मन का अनुसरण करते हैं। मन की इच्छा अनुसार प्राणन (तपन) करते हैं। शरीर के सातों धातु जठराग्नि में आहुत होते हैं। भाव शुद्धि ही इस तप का आधार है।

अणुव्रत कार्यक्रम, अनेकान्त दर्शन, महावीर का अर्थशास्त्र जैसे कार्यों की राष्ट्र स्तर पर प्रशंसा भी हुई, अणुव्रत अभियान में अन्य धर्मों की भागीदारी भी देखने को मिली और जैन धर्म का एक वृहत चिन्तन स्वरूप उभरकर सामने आया। आचार्य तुलसी ने जो समणी संस्था बनाई, उसने हमारी भागीदारी देश-विदेशों में पहुंचाई। आज प्रत्येक धर्म-सम्मेलन में हमारी उपस्थिति स्पष्ट है।

आज परिवर्तन की गति बढ़ गई है। कम्प्यूटर आगे निकल गया, मानव पीछे रह गया। अत: हम सब टीवी, फोन, इंटरनेट से बंध गए। छूट पाने की शक्ति कम पड़ गई। धर्म को घुटने टेकते देखा जा सकता है। हर परिवार में सब-कुछ बदल गया। शर्म के मारे हमने मुखौटे लगाने शुरू कर दिए। हमने सत्य को छोड़ दिया, अपरिग्रह को भूल गए, अहिंसा की अवधारणा को ही नहीं जानते। बच्चों को हिंसा के उदाहरण देकर अहिंसा सिखा रहे हैं। महाव्रतों की ही यह हालत है, तब आश्चर्य नहीं कि विश्व पटल पर जैन धर्म सिमटता जा रहा है। आज धार्मिक और सामाजिक आयोजनों में राजनीति का प्रवेश बढऩे लगा है। हम देख चुके हैं कि ‘जीवन विज्ञान’ को शिक्षा से जोडऩे में किसने कितना साथ दिया। नए युग की चुनौतियों पर मंथन होना, नई पीढ़ी को तथा अन्य समाजों को जोडऩा हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। समाज में जिस तरह से धन का, परिग्रह का, व्यसनों का और असत्य का वर्चस्व बढ़ रहा है, इसे देखकर महाप्रज्ञ जी की संवेदनशीलता और व्यक्तिगत प्रेरणा याद आते हैं, आगे भी याद आएंगे। कहीं स्मृति बनकर ही न रह जाए।

मैं तो वैसे भी किसी सम्प्रदाय का अंग नहीं रहा। आज भी स्वतंत्र पत्रकार ही हूं। अत: अनेक गहन विषयों पर चर्चाओं में भाग लेने का अवसर भी मिला। चाहे दलाई लामा से औपचारिक चर्चा हो, चाहे महावीर के अर्थशास्त्र की।

मैं दलाई लामा से भी इसी प्रांगण में आचार्य महाप्रज्ञ के साथ मिला था। आचार्य तुलसी तथा महाप्रज्ञ जी ने जो छाप छोड़ी थी, उससे दलाई लामा मुग्ध होकर गए थे। एक व्यक्तित्व का प्रभाव ही तो था, जिसने आत्मा के धरातल को जोड़ा था। दिमाग से बांधने का प्रयास नहीं था। आचार्य महाप्रज्ञ अन्तर्जगत के यात्री थे। वे भीड़ में भी अकेले शान्त भाव से देखे जा सकते थे। वास्तव में तो वे आचार्य तुलसी के प्रतिबिम्ब ही थे। हम उनको महाप्रज्ञ बोलें या आचार्य तुलसी, मुझे तो अन्तर नजर नहीं आता। मैंने महाप्रज्ञ जी को कभी किसी कार्य का श्रेय अपने ऊपर लेते नहीं देखा। सब गुरुदेव को अर्पण! उनको कभी स्वयं के लिए जीते नहीं देखा। बीज की तरह जमीन में दबे रहे और वटवृक्ष बन गए।

मेरी दृष्टि में आचार्य महाप्रज्ञ धर्म-सम्प्रदाय से ऊपर साधक बन चुके थे। इनका प्रमाण उनका मौन सम्प्रेषण था। अनेकों ने इसका अनुभव किया है। उनकी प्रज्ञा व्यवहार क्षेत्र में भी गहरी और खरी दिखाई पड़ती थी। दर्शन के क्षेत्र में तो आचार्य महाप्रज्ञ ने अनेक आयाम स्थापित किए। वे संकीर्णता से परे थे और लाखों मनों पर छाप छोड़ गए। मैं तो उनको तेरापंथ का पर्याय मानता हूं। आचार्य भिक्षु की तरह पीढिय़ों तक उनका मार्गदर्शन उपलब्ध रहेगा।

मेरे जीवन में तो उनकी उपस्थिति अद्भुत थी। मेरे आने की जानकारी उनको सदा 2-3 दिन पहले हो जाती थी। यह मेरी बात का स्थूल पहलू है। सूक्ष्म पहलू यह है कि मुझे यह संकेत कर देते थे कि मुझे उनके पास कब पहुंचना है। वे तो घोषणा भी कर देते थे कि किसी कार्यक्रम में मैं आऊंगा या नहीं आऊंगा। जबकि मेरा आने का कोई कार्यक्रम नहीं होता था और मैं पहुंच जाता था। मैंने समाचार पढ़ा कि दलाई लामा लाडऩूं आ रहे हैं, तो विचार उठा कि चलना चाहिए। यहां पहुंचा तो द्वार पर स्वागत के लिए समाज के कुछ वरिष्ठ कार्यकर्ता लेने को खड़े थे। मुझे वहां ले गए जहां दोनों धर्मचार्यों का संवाद चल रहा था। द्वार पर दो संत खड़े थे। मुझे भीतर ले गए। आचार्य तुलसी की ओर चार आसन थे। एक मेरा आसन खाली था। किसने उनको सूचना दी कि मैं आऊंगा!

इस प्रकार के अनुभव तो मुझे लगभग हर एक यात्रा में होते थे। एक ओर मेरे बुआ सा. लाडऩूं में रहते हैं। उनको सदा मुझसे यही शिकायत रही कि मैं उनको कभी भी आने की सूचना नहीं देता था। जैसे विश्व भारती परिसर में सबको 2-3 दिन पहले मेरे आने की जानकारी होती थी। जयपुर बैठे का मेरा कार्यक्रम तय नहीं होता था। अब तो बुआजी भी मान गए – मैं गलत नहीं था।

एक अन्य घटना का उल्लेख भी करना चाहता हूं। मैं, परिवार, अपने गुरु स्व. देवीदत्त जी चतुर्वेदी एवं कार्यालय के वरिष्ठ सहयोगियों के साथ महामहिम राष्ट्रपति को हमारी पुस्तकों की प्रथम प्रति भेंट करने दिल्ली गया था। प्रात: जल्दी ही जयपुर के लिए रवाना होना तय हुआ। रात को सूचना मिली कि आचार्य महाप्रज्ञ महरौली में विराजे हुए हैं। हम उनके दर्शन करते हुए जयपुर जाने को रवाना हुए। महरौली में एक बड़ा जन सैलाब उमड़ रहा था। हम कुछ तय करते, उससे पहले ही एक-दो संतों की नजर हम पर पड़ गई, मानो वे प्रतीक्षा ही कर रहे थे। उन्होंने हमारे लिए मार्ग सुलभ कराया और कार भीतर ले गए। हम सबको आचार्यश्री के कमरे तक पहुंचाया और बाकी सभी अतिथियों को अनुरोध करके बाहर भेज दिया। मैं अभी भी उत्सुक था कि बात क्या है? मैंने निवेदन किया कि हम सब जयपुर जा रहे हैं। आचार्यश्री ने इतना ही इशारा किया कि अच्छा हुआ तुम आ गए, कार्यक्रम देखकर जाना।

बाहर निकलकर मालूम किया तो पता चला कि आज उनका आचार्य पदारोहरण का कार्यक्रम है। मैं मन ही मन धन्य हुआ। आचार्यश्री को मन ही मन में उल्लसित होकर पुन: प्रणाम किया। एक संत हमारे साथ चल रहे थे। साथ वालों को दर्शकों में बिठाकर मुझे मंच तक पहुंचा गए। मुझे आश्चर्य तब हुआ जब कार्यक्रम के शुरू में अणुव्रत के अध्यक्ष शिवराज पाटिल और टीएन शेषन के बाद वक्ता के रूप में मेरा नाम पुकारा गया। मेरे बोलने के बाद कार्यक्रम शुरू हो गया। मैंने तब गुरु और शिष्य को एक-दूसरे में लीन होते देखा था। गुरु के हाथों शिष्य को गुरु बनते देखा। दुर्लभ हैं ऐसे दृश्य। ऐसी ही स्थिति तब भी बनी थी जब लाडऩूं में महामहिम राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा आए थे और मुझे बोलने का आदेश हुआ था। दोनों ही कार्यक्रमों में हमारे मंत्रियों की उपस्थिति भी थी।

मुझे सबसे बड़ा सुखद आश्चर्य तब हुआ था, जब सन् 2003 में मुझे सूरत में ‘आचार्य तुलसी सम्मान’ मिला था। आचार्यश्री ने अपने सम्बोधन में कहा था – ‘मुझे नहीं मालूम कि यह सम्मान गुलाब का हो रहा है या कि मेरा हो रहा है।’ कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे राजस्थान के तत्कालीन मुख्यमंत्री स्व. भैंरोंसिंह शेखावत ने बीच में माइक पकड़ते हुए कहा कि, ‘मुझे मालूम है कि यह सम्मान मेरा ही हो रहा है।’ स्नेह की वर्षा के मीठे पल थे। मैं भी आत्मविभोर था।

मैने आचार्य तुलसी और आचार्य महाप्रज्ञ दोनों से ही स्नेह अर्जित किया है। आचार्य महाप्रज्ञ के पास जयपुर प्रवास के दौरान नित्य प्रात: चार बजे ध्यान करने जाता था। विशेष बात यह थी कि आचार्यश्री घड़ी में चार बजे का अलार्म लगाया करते थे। जैसे ही अलार्म बजता, आचार्यश्री के मुंह से एक वाक्य निकलता था – ‘देखना गुलाब आ गया क्या?’ आप और क्या जानना चाहते हो? किसी भी दिन मैं देर से नहीं पहुंचा और नित्य लगभग तीन घंटे बाद आचार्यश्री मुझे आवाज देकर वापिस बुलाते थे। आंख खुलती तो देखता कि चारों ओर संत और श्रावक चर्चा करते रहते। आचार्यश्री इस बात से अति प्रसन्न थे कि किसी अन्य की आवाज मेरे ध्यान में बाधक नहीं होती थी। कहते भी थे – ‘मेरी आवाज से ही लौटेगा।’

आचार्यश्री जानते थे कि मैं अन्य गुरु के द्वारा अन्य उपासना क्षेत्र में दीक्षित हूं। उन्होंने कभी इस बारे में विरोध नहीं किया, बल्कि सरदारशहर प्रवास में मुझसे आग्रह किया कि अपने गुरुजी को साथ लेकर आना। मिलना चाहता हूं। और मैं लेकर गया, दोनों को मिलाया। नवरात्रि पर मेरे नौ दिन के एकान्तवास और जाप के अभ्यास की भी सदा चर्चा करते थे। साधना क्षेत्र के भी कुछ स्वर्णिम पक्ष होते हैं। आचार्यश्री भी मेरा ऐसा ही पक्ष थे। बाहर जीने के साथ भीतर बैठे रहना, स्वयं को समेटकर समष्टि भाव में जीना सिखा गए।

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