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संभलकर सुलझाएं आरक्षण मसला

Published: Nov 01, 2017 01:23:54 pm

संविधान के अनुच्छेद 340 में कहा गया है कि राष्ट्रपति सामाजिक, शैक्षणिक पिछड़ेपन का मापदण्ड निर्धारित कर सूची तैयार करने के लिए आयोग का गठन करेगा

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– डॉ. सत्यनारायण सिंह

उच्चतम न्यायालय ने दिशानिर्देश दिए हैं कि अति पिछड़ों के नाम पर पिछड़े वर्ग का आरक्षण कम नहीं किया जा सकता, तुलनात्मक सामाजिक स्तर व जनसंख्या का ध्यान रखना आवश्यक है। जब से पिछड़ा वर्ग आरक्षण लागू हुआ तब से आज तक किसी आयोग ने सूचियों की समीक्षा नहीं की।
संविधान के अनुच्छेद 340 में कहा गया है कि राष्ट्रपति सामाजिक, शैक्षणिक पिछड़ेपन का मापदण्ड निर्धारित कर सूची तैयार करने के लिए आयोग का गठन करेगा। यह देश में ऊंच-नीच, वर्ग विभाजन, धर्म विभाजन आदि निषेध व निर्योग्यताओं का ध्यान रखकर केन्द्र व प्रत्येक राज्य के लिए ऐसी सूचियां बनाएगा जिससे उस पिछड़े वर्ग को विशेष अवसर, विशेष प्रोत्साहन, शिक्षा व सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिया जा सकेगा। उच्चतम न्यायालय ने इस संबंध में अनेक फैसले दिये हैं और उनका निष्कर्ष यह है कि सामाजिक पिछड़ेपन में आर्थिक पिछड़ापन व निर्धनता सम्मिलित है।
व्यवसायिक वर्ग (जाति नहीं) जो सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े हैं, जिनको सरकारी सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिला है, उन्हें विशेष अवसर, विशेष छूट, विशेष प्रोत्साहन, विशेष रियायत व आरक्षण संवैधानिक है। केन्द्रीय स्तर पर गठित मंडल आयोग ने मापदण्ड निर्धारित किये। पर्याप्त सर्वेक्षण पश्चात केन्द्रीय व राज्यों की सूची बनाई। इन्द्रा साहनी बनाम भारत सरकार के फैसले के बाद आयोग की रिपोर्ट लागू हुई परन्तु भारत सरकार ने अलग से 10 प्रतिशत आर्थिक आधार पर आरक्षण का आदेश भी दिया जिसे उच्चतम न्यायालय ने निरस्त कर दिया और कहा कि आर्थिक आधार पर आरक्षण संविधान की मंशा के प्रतिकूल है।
मात्र संपत्ति और आय के आधार पर कोई आरक्षण नहीं दिया जा सकता। इसके लिए सामाजिक पिछड़ापन आवश्यक है। सर्वोच्च न्यायालय ने मंडल आयोग की रिपोर्ट व सूचियां जो राज्यों में प्रचलित सूचियों के आधार पर बनी थीं, को स्वीकार कर लिया। इसके साथ ही केन्द्रीय स्तर व राज्य स्तर पर उस सूची की समीक्षा करने, ऐसे वर्गों जो सामाजिक व आर्थिक रूप से पिछड़े थे परन्तु जुडऩे से वंचित रह गये थे, उन्हें निर्धारित मापदण्डों के अनुसार जोडऩे और जिन वर्गो को पर्याप्त प्रतिनिधित्व मिल चुका है या सामाजिक, शैक्षणिक रूप से पिछड़े नहीं है, उन्हें सूची से हटाये जाने के संबंध में निर्देश दिए। उच्चतम न्यायालय की मंशा यह नहीं थी कि राजनैतिक आधार पर केन्द्रीय अथवा राज्य स्तरीय आयोग बने और वे राजनैतिक दबाव से इसमें भारी बदलाव करें या सरकारें वोटों की खातिर कुछ भी घोषणा या निर्णय करें।
ऐसे वर्ग जिन्हें मंडल आयोग ने उच्च वर्ग बताया है या जिन पिछड़े वर्गो को पर्याप्त प्रतिनिधित्व मिल चुका है, उन्हें राजनैतिक कारणों से, दबाब की राजनीति के चलते पिछड़ा वर्ग में जोड़ दिया जाय। इस शुरुआत ने पिछड़ा वर्ग आरक्षण का बंटाधार कर उसे स्थायी समस्या का रूप दे दिया। राजनैतिक दबाव के आधार पर फैसलों का नतीजा यह हुआ है कि आज विभिन्न वर्गों में वैमनस्य, भ्रान्तियां व कड़वाहट है। प्रत्येक वर्ग अब अधिकाधिक लाभ लेने की चेष्टा में है। अब राजनैतिक दबाव बनाकर पिछड़ा वर्ग सूची में नाम जोडऩे या वर्गीकरण की मांग हो रही है। पिछड़ा वर्ग के वर्गीकरण के संबंध में भी उच्चतम न्यायालय ने दिशानिर्देश दिए हैं। अति पिछड़ों के नाम पर पिछड़े वर्ग का आरक्षण कम नहीं किया जा सकता, तुलनात्मक सामाजिक स्तर व जनसंख्या का ध्यान रखना आवश्यक है।
जब से पिछड़ा वर्ग आरक्षण लागू हुआ तब से आज तक किसी आयोग ने सूचियों की समीक्षा नहीं की। किसी एक वर्ग को भी पिछड़ा वर्ग सूची से पर्याप्त प्रतिनिधित्व प्राप्त करने पर भी नहीं हटाया बल्कि नाम ही जोड़े जाते रहे। अनेक राज्यों में पिछड़ा वर्ग जनसंख्या 30-35 प्रतिशत से बढक़र 55 प्रतिशत तक पहुंच गई है। फिर, सभी वर्ग अपनी राजनैतिक ताकत दिखाकर इसमें जुडऩे का प्रयास कर रहे हंै। राजनैतिक दबाब में संविधान की मंशा और उच्चतम न्यायालय के आदेशों के विरुद्ध 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण की सीमा बढ़ाकर कानून पास कर दिया। आज देश में आरक्षण की स्थिति यह हो गई है कि चाहे वह दलित वर्ग हो, अनुसूचित जनजाति वर्ग हो अथवा पिछड़ा वर्ग हो, जो संपन्न हो गये है, जो शिक्षित हो गये है, जिनका सामाजिक स्तर उंचा हो गया है, वे लाभ प्राप्त कर रहे है। विकृतियां व विसंगतियां बढ़ गई है। कुछ परिवारों के अनेकानेक व्यक्ति अखिल भारतीय सेवाओं में अधिकारी बन जाने पर भी आरक्षण लाभ ले रहे है। दलित व पिछड़ा वर्गों की पूरी सूचियों में केवल कुछ जाति/वर्ग लाभ प्राप्त कर रहे है।
पिछड़ा वर्ग सूची में सम्मिलित एक चौथाई से अधिक जाति/वर्ग ऐसे हैं जिन्हें आज तक कोई लाभ नहीं मिला। सम्पूर्ण आरक्षण प्रक्रिया मजाक बन गई है। निश्चय ही इससे सामाजिक असमानता व बिखराव व कटुता, अशांति बढ़ रही है। आरक्षण को समाप्त नहीं किया जा सकता और न ही किया जाना चाहिए परन्तु इसमें आई विकृतियों और विसंगतियों को हटाने का प्रयास करना होगा अन्यथा एक वर्ग और बढ़ेगा। राजस्थान में जिस प्रकार की स्थिति बनी है, वह सरकार द्वारा लिये गये निर्णय का परिणाम है। उच्च स्तर पर राजनीतिज्ञों, न्यायविदों, शिक्षाविदों व समाजशास्त्रियों की समिति बनाकर पूरी आरक्षण व्यवस्था पर संविधान व उच्चतम न्यायालय के फैसलों के अनुसार विचार किया जाना आवश्यक है। संविधान और भ्रातृत्व की भावना के विपरीत सरकारों को राजनैतिक हितों के बजाय उच्चतम न्यायालय के निर्देशों के अनुरूप निर्णय लेना चाहिए।
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