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आख्यान : कुटुम्बियों की रक्षा गृहस्थ का दायित्व

locationनई दिल्लीPublished: Jun 16, 2021 07:59:39 am

शत्रु को स्त्री-पुरुष, देव-दानव या सम्पन्न-दरिद्र के आधार पर बांट कर नहीं देखना चाहिए।शत्रु केवल शत्रु होता है।

आख्यान : कुटुम्बियों की रक्षा गृहस्थ का दायित्व

आख्यान : कुटुम्बियों की रक्षा गृहस्थ का दायित्व

सर्वेश तिवारी श्रीमुख, (पौराणिक पात्रों और कथानकों पर लेखन)

श्रीराम और सीता के साथ अपने अभद्र आचरण के कारण नाक कटा कर जब सूर्पनखा रोती-कलपती अपने भाइयों की ओर गई तो लक्ष्मण ने कहा, ‘एक बात कहूं भइया! कहीं हमने इस राक्षसी की नाक काट कर कुछ अनुचित तो नहीं किया? वह जैसी भी हो, पर है तो स्त्री ही न, क्या उसका अपमान करना उचित था?’ श्रीराम ने गम्भीरता के साथ उत्तर दिया, ‘उसने सीता पर उसकी हत्या के उद्देश्य से आक्रमण किया था, उसका तो वध किया जाना उचित था। एक गृहस्थ के रूप में हमारा प्रथम दायित्व यही है कि हम अपने कुटुम्बियों पर आई विपत्तियों से उनकी रक्षा करें। सीता की रक्षा के लिए हमें जो कुछ भी करना पड़े वह करना हमारा धर्म ही है। फिर उस राक्षसी की नाक काटने पर ग्लानि क्यों! और एक विवाहित व्यक्ति से उसकी पत्नी के सामने ही विवाह का प्रस्ताव रखना तो यों भी नाक कटाने जैसा ही है लक्ष्मण।’

‘किन्तु भइया! वह स्त्री है। और उसने हमारे साथ जो व्यवहार किया वह उसकी संस्कृति के अनुसार उचित ही है, राक्षसों में तो ऐसा होता ही है। वह हमारी मर्यादा नहीं समझती है। फिर उसे दण्ड देना कहां तक उचित है?’ लक्ष्मण ग्लानि से भरे हुए थे। श्रीराम ने कहा, ‘सुनो लखन! शत्रु को स्त्री-पुरुष, देव-दानव या सम्पन्न-दरिद्र के आधार पर बांट कर नहीं देखना चाहिए। शत्रु केवल शत्रु होता है, और उसके साथ उसी के आधार पर व्यवहार करना चाहिए। और जहां तक संस्कृति का प्रश्न है, उसने अपनी संस्कृति के अनुसार व्यवहार किया और हमने अपनी संस्कृति के अनुसार उत्तर दिया। इसमें कुछ भी बुरा नहीं। यदि किसी पुरुष द्वारा किसी अन्य पुरुष की स्त्री का हरण करना अपराध है, तो एक स्त्री द्वारा किसी अन्य स्त्री के पति का हरण भी अपराध ही है। ऐसे अपराधियों को दण्ड मिलना ही चाहिए।’

लक्ष्मण बड़े भाई की बातों से संतुष्ट दिख रहे थे। राम ने पुन: कहा, ‘सुनो लक्ष्मण! सूर्पनखा मायावी है, नाक कटने से उसको अधिक हानि नहीं होने वाली। वह पुन: अपना स्वरूप गढ़ लेगी। किन्तु उस पर प्रहार आवश्यक था, क्योंकि जिस कार्य के लिए नियति ने हम तीनों को वन में भेजा है उसका प्रारम्भ इसी घटना से होना था। अब अत्याचारी राक्षसों के अधिपति से प्रत्यक्ष युद्ध की घोषणा हो चुकी, सो ग्लानि भूल कर युद्ध के लिए तैयार हो जाओ।’ लक्ष्मण तो सदैव ही तैयार रहते थे, उन्होंने मुस्कराते हुए धनुष उठा लिया।

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