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कश्मीरी पंडित: आतंक के नए दौर से भय का माहौल

locationनई दिल्लीPublished: Oct 22, 2021 10:05:23 am

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Patrika Desk

– कश्मीरी पंडितों की वापसी की राह हो गई मुश्किल ।- 1990 के बाद करीब तीन दशक से कश्मीरी पंडित घाटी से बाहर हैं।

कश्मीरी पंडित: आतंक के नए दौर से भय का माहौल

कश्मीरी पंडित: आतंक के नए दौर से भय का माहौल

अरुण जोशी (दक्षिण एशियाई कूटनीतिक मामलों के जानकार)

कश्मीर में हाल ही निर्दोष लोगों के मारे जाने की घटनाओं के बाद यह सवाल उठना लाजमी है कि क्या कश्मीरी हिंदू घाटी स्थित अपने घरों को कभी लौट पाएंगे? इस सवाल का जवाब है कि आज हालात इतने बदल चुके हैं कि इन हिन्दुओं की घर वापसी का रास्ता आसान नहीं होगा। ताजा घटनाओं में मारे गए लोगों में ज्यादा हिन्दुओं का होना न केवल घाटी में लौट रहे हिन्दुओं को चेतावनी है, बल्कि अधिक चिंताजनक बात यह है कि आपसी संदेह का घड़ा इतना भर चुका है कि इसे खाली करना मुश्किल है। नई मौतों ने यह नफरत और बढ़ा दी है। 1990 के बाद करीब तीन दशक से कश्मीरी पंडित घाटी से बाहर हैं। दरअसल 1989 की सर्दियां शुरू होने के बाद से ही कश्मीरी पंडित घाटी छोड़ कर भागने लगे थे। तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी रूबिया सईद का अपहरण कर लिया गया। उसको छुड़ाने के लिए भारत सरकार को पांच आतंकियों की रिहा करना पड़ा था। यह राज्य के पतन और आतंकवाद के सामने घुटने टेकने का संकेत था। यह वह दौर था जब कुछ लोगों के मारे जाने से भय व्याप्त हो गया। धीरे-धीरे शुरू हुआ पलायन घाटी से कश्मीरी पंडितों के निष्कासन में तब्दील हो गया।

पंडितों के पलायन के दो कारण रहे। एक, अल्पसंख्यक होने के नाते वे डर गए और खुद को दुश्मनों से घिरा पाया। ऐसे माहौल में ऐसा कुछ नहीं था जो उन्हें सुरक्षा का भरोसा दिला सके। दूसरा, बंदूकों से ज्यादा उन्हें दुश्मनों के शोर से ज्यादा डर लगता था जो उनसे यही कहते रहते थे कि वे घाटी से चले जाएं क्योंकि यहां उन्हें ‘निजाम-ए-मुस्तफा’ या इस्लामिक शासन कायम करना है। इससे पंडितों के पास घाटी छोडऩे के अलावा कोई विकल्प नहीं रह गया था। इनमें से बहुत से लोगों को लगता था कि वे केवल कुछ ही समय के लिए घाटी छोड़ कर जा रहे हैं और कुछ माह बाद घाटी लौट आएंगे। पंडितों का अब भी वापसी का इंतजार है।

विस्थापन के 31 साल बाद कश्मीर बहुत बदल गया है। जो पीढिय़ां एक साथ बड़ी हुईं और जिन्होंने सांस्कृतिक विरासत को साझा किया, वे अपनी धरती से एक अरसे से दूर हैं। यहां के मुसलमान कभी कहा करते थे-‘कश्मीरी पंडित घाटी का अभिन्न हिस्सा हैं और उनके बिना कश्मीर अधूरा है।’ ऐसी बातें अब यहां कोई नहीं करता। सब चुप हैं। बढ़ते कट्टरवाद ने उनकी आवाज दबा दी है। घाटी के मूल निवासी कश्मीरी पंडित भी यहां के लिए पराए हो गए। अब उन्हें ‘बाहरी’ भी कहा जाता है। यह खाई अब और चौड़ी हो गई है। अल्पसंख्यक समुदाय के जिन लोगों को घाटी में रोजगार का विशेष पैकेज दिया गया था और घाटी के विभिन्न हिस्सों में विशेष रूप से निर्मित शिविरों में रखा गया था, बहुसंख्यक समुदाय ने इसका विरोध किया था। उन्हें लगा कि अल्पसंख्यक सरकारी नौकरियों के उनके अधिकार छीन लेंगे। इस वजह से भी कश्मीरी पंडितों की घर वापसी की राह में बाधा आई। अब इस माह कश्मीर में हुई हत्याओं ने कश्मीरी पंडितों को एक बार फिर यही संदेश दिया है कि कश्मीर घाटी में उनकी वापसी की राह आसान नहीं है।

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