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विश्वास की टूटती डोर

Published: Jul 21, 2018 10:51:38 am

एक दलील यह भी कि तुगलकी नोटबंदी योजना ने किसान की कमर ही तोड़ दी। सूखे से उबर रहा किसान जब पहली अच्छी फसल बेचने बाजार पहुंचा तो कैश नहीं था, मांग गिर चुकी थी, भाव टूट गए थे।

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– योगेंद्र यादव, विश्लेषक

एक तरफ विपक्ष की ओर से केंद्र की मोदी सरकार के खिलाफ लाए गए अविश्वास प्रस्ताव को 2019 के लोकसभा चुनाव के प्रचार अभियान का लांचपैड कहा जा रहा है और सरकार व विपक्ष दोनों के लिए अविश्वास प्रस्ताव के फायदे-नुकसान पर मंथन हो रहा है। दूसरी तरफ हम सब दस दिशाओं से आने वाली किसानों की उन आवाजों को सुन सकते हैं, उन दस दलीलों की शिनाख्त कर सकते हैं, जिनके चलते देश का किसान मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास मत पास कर चुका है।
पहला: मोदी सरकार चुनावी मेनिफेस्टो में किसानों से किए सभी बड़े वादों से मुकर गई है। वादा था कि ‘कृषि वृद्धि और किसान की आय में बढ़ोतरी को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाएगी।’ सरकार के ही आंकड़े देखें तो पिछले चार साल में कृषि क्षेत्र में वृद्धि की दर घट गई है। दो साल पड़े सूखे को भी जिम्मेदार नहीं मानें तो भी किसानों की वास्तविक आय चार साल में 2त्न भी नहीं बढ़ी है और दावा छह साल में 100त्न बढ़ाने का है। वादा था कि कृषि में सरकारी खर्च बढ़ेगा, पर वास्तव में जीडीपी के प्रतिशत के रूप में यह खर्च घटा है।
वादा एक संपूर्ण बीमा योजना का था, बदले में मिली प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना जिसमें सरकार का पैसा तो डूबा लेकिन किसानों की जगह कंपनियों के पास गया। बुजुर्ग किसानों, छोटे किसानों और खेत मजदूरों के कल्याण की योजना का वादा भी भुला दिया। राष्ट्रीय भूमि उपयोग नीति की बात भी नहीं सुनी जाती। मंडी एक्ट में संशोधन का वादा भी अब याद नहीं…
दूसरा: सरकार किसानों को लागत का डेढ़ गुना दाम देने के सबसे बड़े चुनावी वादे से मुकर गई। पहले फरवरी 2015 में सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर सरकार ने कहा कि इस वादे को निभाना असंभव है। फिर जब किसान संगठनों का दबाव बना तो 2018 के बजट में अरुण जेटली जी ने लागत की परिभाषा ही बदल दी। तीसरा: लागत का डेढ़ गुना एमएसपी का वादा तो दूर की बात है, सरकार ने पुरानी सरकारों की सामान्य एमएसपी वृद्धि दर भी कायम नहीं रखी। आते ही सरकार ने एमएसपी पर राज्य सरकारों का बोनस रोक दिया। कुल मिलाकर मोदी सरकार की एमएसपी में बढ़ोतरी मनमोहन सिंह कि दोनों सरकारों से भी कम है। इस साल ऐतिहासिक बढ़ोतरी का प्रचार भी झूठ है क्योंकि इससे ज्यादा बढ़ोतरी तो यूपीए सरकार 2008-09 में चुनावी रेवड़ी बांटते वक्त कर चुकी थी। सरकार द्वारा घोषित आधी-अधूरी एमएसपी भी किसान तक नहीं पहुंची और पिछले साल किसानों को कम से कम 50,000 करोड़ रुपए का चूना लगा।
चौथा: कागज पर किसान को मुआवजे की दर बढ़ाने और खराबी की सीमा बदलने के सिवाय दो साल तक सरकार ने सूखा नियंत्रण के जरूरी कदम नहीं उठाए। सुप्रीम कोर्ट को बार-बार केंद्र सरकार की लापरवाही पर टिप्पणी करनी पड़ी। पांचवां: रोजगार गारंटी योजना को बंद करने में जब सरकार कामयाब नहीं हुई तब इसके फंड रोकने और समय पर वेतन का भुगतान और मुआवजा न देने के जरिए योजना का बंटाधार किया गया। इससे छोटे किसानों और खेतिहर मजदूरों की स्थिति पहले से भी कमजोर हुई है। छठा: चाहे 2014 में आलू निर्यात पर न्यूनतम निर्यात मूल्य सीमा हो या फिर इस साल गन्ने की बंपर पैदावार के बावजूद पाकिस्तान से चीनी का आयात, इस सरकार में आयात-निर्यात नीति से किसान को नुकसान ही पहुंचा है। नतीजतन 2013-14 में कृषि उपज का निर्यात 4300 करोड़ डॉलर से 2016-17 में 3300 करोड़ डॉलर रह गया।
सातवां: नोटबंदी की तुगलकी योजना ने तो किसान की कमर ही तोड़ दी। मुश्किल से दो साल के सूखे से उबर रहा किसान जब पहली अच्छी फसल बेचने बाजार पहुंचा तो कैश नहीं था, मांग गिर चुकी थी, भाव टूट गए थे। फल-सब्जी किसान तो आज भी उस कृत्रिम मंदी से उबर नहीं पाया है। आठवां: गोहत्या रोकने के नाम पर पशुधन व्यापार पर पाबंदियों और गो-तस्कर पकडऩे के नाम पर हिंसा ने पशुधन अर्थव्यवस्था की कड़ी तोड़ दी है। इससे किसान की आमदनी भी प्रभावित हुई है, खेतों में आवारा पशुओं की समस्या भी बढ़ रही है।
नवां: पर्यावरण नीति के तहत वन अधिकार कानून में आदिवासी किसान के अधिकार सीमित कर दिए गए हैं। जंगल और पर्यावरण के बाकी कानूनों में भी ऐसे बदलाव किए गए हैं जिससे आदिवासी समाज के जल, जंगल और जमीन पर उद्योगों और कंपनियों का कब्जा आसान हो जाए। दसवां: सरकार ने किसान की अंतिम और सबसे बहुमूल्य संपत्ति छीनने की पूरी कोशिश की है। वर्ष 2013 में बने नए भूमि अधिग्रहण कानून को अध्यादेश के जरिए खत्म करने की कोशिश जब चार बार नाकाम हुई तो अपनी राज्य सरकारों के जरिए कानून में ऐसे छेद करवाए ताकि किसान को भूमि अधिग्रहण में जायज हिस्सा न मिल सके।
चौधरी चरण सिंह कहते थे कि देश की कोई भी सरकार किसान हितैषी नहीं रही है। इसलिए सवाल यह नहीं होना चाहिए कि सरकार किसान हितैषी है या नहीं। मूल्यांकन का असली पैमाना यह है कि कोई सरकार कितनी किसान विरोधी है। इस पैमाने पर निस्संदेह मोदी सरकार के लिए किसानों का विश्वास फिर से जीत पाना बेहद मुश्किल होगा।
(सह-लेखक अवीक साहा, जय किसान आंदोलन के राष्ट्रीय संयोजक हैं।)
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