आसानी से समझी जा सकने वाली बात यह है कि धनी देश अपनी आबादी के पर्याप्त टीकाकरण के लिए दौड़ में हैं ताकि इस वर्ष उनके लोगों में हर्ड इम्युनिटी विकसित हो जाए। यदि हम बाकी दुनिया को टीकाकरण में शामिल नहीं करते हैं तो इस तरह की कोशिश विफल हो जाएगी। सर्वाधिक गरीब और विकासशील देशों में वैक्सीन उपलब्ध नहीं है। यहां तक कि फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं को एक भी खुराक नहीं मिल पाई है। महामारी से अमीर देश अपनी परिष्कृत मेडिकल सुविधाओं और मजबूत अर्थव्यवस्था के बाद भी बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। ऐसे देश, जहां स्वास्थ्य सुविधाएं सीमित हैं, अर्थव्यवस्था कमजोर है, वहां जिंदगी और आजीविका पर कोविड-19 का असर दमघोंटू वाला रहा है।
उच्च आय वाले देशों को अपनी सम्पदा और प्रभाव का इस्तेमाल यह सुनिश्चित करने के लिए करना चाहिए कि सभी देशों को इस वर्ष वैक्सीन की कुछ सुविधा मिले, वैक्सीन सभी के लिए उपलब्ध और सस्ती हो। हालांकि, अपनी नियति के चलते अलग धाराओं में बहने वाली ये दोनों दुनिया अभी भी जुड़ी ही रहेंगी। सबसे गरीब देशों में कोविड-19 महामारी की लपट फैलती जाएगी और पूरे विश्व में इसका प्रकोप फिर हो जाएगा। यदि हम दुनिया के एक हिस्से को बिना वैक्सीनेशन के छोड़ देते हैं तो हम देखेंगे कि वायरस का फैलाव और तेज गति से होगा। इसका अर्थ है, और वैरिएंट अनिवार्य रूप से उत्पन्न होंगे और ज्यादा घातक भी होंगे। ऐसे में तो वर्तमान वैक्सीन और डायग्नोस्टिक की प्रभावशीलता को खतरा ही पैदा होगा।
अगर हम वैश्विक आबादी में से कुछ को ही वैक्सीन देते हैं तो यह गहन नैतिक विफलता होगी। इसके लिए एक शब्द पहले ही तैयार किया जा चुका है – वैक्सीन रंगभेद। पर पूरी दुनिया को टीके लगाने के लिए नैतिकता ही एकमात्र कारण नहीं है। वायरस को किसी एक क्षेत्र या देश तक ही सीमित नहीं रखा जा सकता है और राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं में जब तक सुधार नहीं होता, ज्यादातर देशों में प्रगति बाधित रहेगी। और जैसे ही नए वैरिएंट्स पनपेंगे, सरकारें लॉकडाउन करेंगी। वैश्विक अर्थव्यवस्था को खरबों का नुकसान होगा। इंटरनेशनल चैम्बर ऑफ कॉमर्स के अध्ययन के अनुसार गरीब देशों में यदि टीकाकरण नहीं किया जाता तो अमीर देशों को 4.5 ट्रिलियन डॉलर की चपत लगेगी। कुछ उपाय हैं जिनको अपनाकर ‘वैक्सीन असमानता’ को दूर किया जा सकता है। सरकार से राजनीतिक और वित्तीय प्रतिबद्धताओं के अलावा कंपनियों की ओर से भी लचीलेपन की जरूरत होगी। ये ऐसे निवेश हैं जो जिंदगी तो बचाएंगे ही, वैश्विक रिकवरी को भी बढ़ावा देंगे। दवा के लिए यह फंडिंग खरबों की उस राशि का बहुत छोटा-सा हिस्सा है, जितना विकसित राष्ट्रों ने राहत पैकेजों पर खर्च किया है। छोटे से इस निवेश से अरबों डॉलर का लाभ हो सकता है और धरती पर लोग भी सुरक्षित रहेंगे। अमीर देश अभी भी तय कर सकते हैं उन्हें कौन-सा भविष्य चाहिए।
(सह-लेखक: जॉन वाइट, चीफ मेडिकल ऑफिसर, डब्ल्यूएमडी)