scriptमौत एक, मुआवजे अनेक | Riots and compensation for death in india | Patrika News

मौत एक, मुआवजे अनेक

Published: Sep 16, 2017 10:50:41 am

मौत, मौत होती है। किसान की हो या नौजवान की। राजस्थान में हो या फिर मध्यप्रदेश में अथवा छत्तीसगढ़ में

Riots in india

riots in india

– गोविन्द चतुर्वेदी

मौत, मौत होती है। किसान की हो या नौजवान की। राजस्थान में हो या फिर मध्यप्रदेश में अथवा छत्तीसगढ़ में। किसानों के आन्दोलन में हो या फिर आरक्षण के आन्दोलन में। साम्प्रदायिक हिंसा में हो या पुलिस की गोली से। मरने वाला किसी मां का लाल होता है। किसी का सुहाग तो किसी का भाई होता है। फिर ऐसी असामान्य मौतों पर देश के अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग मुआवजा क्यों मिलता है? एक ही राज्य में अलग-अलग घटनाओं में कम-ज्यादा राशि पीडि़त परिवारों को क्यों मिलती है? और हर बार इस सहायता-मुआवजे के लिए प्रभावितों या उनके हिमायतियों को आन्दोलन क्यों करना पड़ता है? आन्दोलन भी ऐसा जिसमें मुआवजे की राशि पर खूब मोल-भाव होता है।
आन्दोलनकारी कहते हैं- हमें एक करोड़ चाहिए। सरकार कहती है- नहीं हम तो पांच लाख रुपए ही देंगे। इस बीच मिट्टी खराब होती है, उसकी जो मर गया। उसके घरवालों के तो आंसू नहीं रुकते और पौंछने वाले राजनीति, चुनाव और वोटों की झोली देखते रहते हैं। समझौता वार्ता में भी निशाना वोटों पर होता है। मरने वाला मुस्लिम है, हिन्दू है, सिंधी है तो उसी धर्म-समाज के राजनीतिक प्रतिनिधि बातचीत करने भेजे जाएंगे। धिक्कार है ऐसी सरकारों और ऐसे इरादों पर जो इंसान को इंसान नहीं रहने देती। हैवान बना देती है। अव्वल तो ऐसी नौबत ही क्यों आए कि, मुआवजा देना पड़े? सरकारें हमेशा जागी क्यों नहीं रहतीं? वे जागी रहें तो न जयपुर में गोली चले न मंदसौर में। न नक्सली किसी को मार पाएं।
सीकर के किसान आन्दोलन में राजस्थान सरकार आन्दोलन के हिंसक होने से पहले ही जाग गई तो नुकसान टल गया अन्यथा सांवरदा, पीलू का पुरा, पाटोली, रावला-घड़साना और सोहेला के उदाहरण हमारे सामने हैं। कई घरों के चिराग बुझ गए। सालों की मेहनत तथा जनता के धन से तैयार सम्पत्तियां मिनटों में फूंक गईं। सरकारों का क्या गया? जो मुआवजा बांटा वो कौनसा उनकी जेब से गया? जनता का धन था। उन्होंने तो बांटने का यश-अपयश अपने नाम लिखा लिया। इससे बचने का सरकारों के पास चाहे वो, केन्द्र की हो या राज्यों की, भाजपा की हो या कांग्रेस अथवा तीसरे-चौथे मोर्चों की, एक ही रास्ता है। और वह रास्ता है, सबको अपना मानने का। वोटों की गणित फलाने के बजाय नियम-कायदों से चलने का।
यह बात किसी के गले नहीं उतरती कि, मध्यप्रदेश में पुलिस की गोली से मरने वाले किसानों के परिजनों को एक करोड़ रुपए की सहायता राशि मिले और राजस्थान में उसी पुलिस की गोली से मरने वाले किसानों के परिजनों को पांच लाख रुपए मिलें। वह भी तब जब दोनों राज्यों में एक ही दल की सरकार हो। इसमें भी पहल करके भारत सरकार कानून बना सकती है। कुछ मामलों में ऐसे नियम हैं भी लेकिन जो बचे हैं उन पर भी बन जाएं तो रोज-रोज का झगड़ा ही मिट जाए। चेहरा देखकर तिलक करने की नौबत ही नहीं रहे। तब एक जैसे हादसों पर देशभर में समान मुआवजा मिलने लगेगा। और कर सके तो उस कानून में यह प्रावधान भी कर दे कि ऐसे हादसों में जांच कौन करेगा और वह कितने दिन में पूरी हो जाएगी? यह भी कानून में ही शामिल हो जाए तो और भी बढिय़ा कि हादसा जिस अफसर और मंत्री-मुख्यमंत्री की लापरवाही से हुआ मुआवजे या नुकसान की पूरी राशि उनसे वसूली जाएगी।
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